गुरुवार, 17 मार्च 2011

अन्तरयात्रा मै भारत हूं।


कुर्वेन्वेह कर्माणि जीजिविच्छयते समाँ। एवं त्वयि नानथतोऽस्ति ना कर्म लिप्यते नरें।। अर्थात हे मानव सौ वर्षों तक तू जिने की ईच्छा कामना कर वह भी बीना कर्मों में लिप्त या तल्लीन हुए, अर्थात निस्काम कर्म करके। गीता में येगेश्वर कृष्ण यही बातें कहते है।

   वेद शब्द के तीन अर्थ सामान्यतः किये जाते है जिसको त्रयी विद्या भी कहते है। ईश्वर जीव प्रकृती, परमात्मा को सत्त्चिदानन्द सत्य अर्थात आन्तरीक अस्तित्व अन्तःकरणीय सत्य, चित्त अर्थात श्रेष्ट चेतनता श्रेष्ट आनन्द जो अस्तित्व से आता है। केवल परमात्रमा के सभी वस्तु नासवान हैं। परमात्मा के पास ही सबसे अधीक शक्तिशाली शक्ति है। परमात्मा ही इस जगत का सबसे बड़ा स्वामी है और सबका रक्षक है। परमात्मा ही एक ऐसा तत्त्व है जो सब जगह सब में विद्यमान हैं। परमात्मा ही सभी प्रकार की शक्तियों का मालिक और उद्धारकर्ता है। परमात्मा सब कुछ जानने वाला है वह सब के हृदय में बैठ कर सबका हर पल साक्षात्कार कर रहा है। उससे कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता हैं ना ही कुछ भी छुप सकता है क्योंकि वह सर्वज्ञ है। परमात्मा सर्वव्यापक है सबकुछ जानने वाला है। परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाअन्तर्यामी, सर्वोत्पादक, अजय, अमर, अभय, नित्य, पवीत्र, अनन्तज्ञान, त्रीकालदर्शि, परमात्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का प्रमुख श्रोत है जिसको सत्य के द्वारा जाना जाता है। परमात्मा ही सबसे अधीक आनन्दित और आनन्द को देने वाला है। परमात्मा ही सहसे श्रेष्ट न्याय करने वाला न्यायधीस है जो हम सब को हमारें कर्मों के आधार पर निस्पक्ष भाव से न्याय करता है, और उपयुक्त कर्मों का फल उपहार पुरष्कार के रूप में देता है। केवल परमात्मा ही पूर्ण है, और सभी प्रकार की अपूर्णता से रहित  है। परमात्मा ही केवल एक ऐसा तत्त्व है जिसकी कोई भी मानव परीपूर्रण ब्याख्या नहीं कर सकता है। क्योंकि वह अब्याख्य है उसको व्यक्त करने की जो भाषा वह मौन की भाषा है। आज के समय में एक क्षण के लिए भी किसी का मौन होना असंभव के समान है उवर से तो लग सकता है की मौन है लेकिन मन कभी शान्त या मौन नहीं होता है। उपर से उसने मौनता को ओढ़ रखा है। विचार उसके अन्दर बिना किसी ब्यवधान के  निर्बिध्न रूप से निरन्तर हमेशा चलते रहते है। जिसके लिए ही स्टेफिन हाकिन्स कहता है केवल परमात्मा ही एक ऐसा विषय है जिसकी ब्याख्या या परीभाषा हम नहीं कर सकते है। इसका केवल हम अपनी आत्मा से अनुभूती कर सकते है। दूसरें सारें मार्ग अपूर्ण है। अदृश्य की क्या ब्याख्या कर सकते है? यही एक रहस्य है, और जो भी उससे जुड़ा है वह भी उसके गुणों से परीपूर्ण है जीवन का मूल आधार वही हैं इसलिए मै कहता हूं की यह जीवन रहस्य है इसमें जितना प्रवेश करते जायेगें उतना ही आनन्द बढ़ता जायेगा। परमात्मा एक है उसको लोग अपने अनुसार अनन्त नामों से जानते है। जैसा की वेद स्वयं कहते हैं एकं सद विप्रा बहुदा बदन्ति। आनन्द और रहस्य के साथ आश्चर्य की अनुभूती होती है।
   जुहोत प्र च तिष्ठत। प्रतिष्ठा सम्मान, समृद्धि और ऐश्वर्य आनन्द की प्राप्ति त्याग से होती है।
   आत्रमा सभी प्रणीयों में विद्यमान है इसको सिवाय वैज्ञानिकों के कोई भी नकार सकता है। वैज्ञानिक इसलिए नकार रहें है क्योंकि वह आत्मा का साक्षात्कार करने में पूर्णतः असमर्थ है। यह शाश्वत सत्य है कि आत्मा ही जीवन का मूल है। आत्मा के संसाधन अनन्त है जो एक दूसरें पर आश्रीत है और अनन्त जीवन बीन्दु के साथ बिभिन्न प्रकार की है। जबकी परमात्मा एक है और आत्मायें अनन्त है। अनन्त का अर्थ सिर्फ यह है की जो सिर्फ शरीर की सिमा में नहीं आता है। जो मानव अपनी समग्र उर्जा को केवल शरीर के लिए ही खर्च कर देते है वह एक देशीय है, और जो मानव यह देखता है कि आत्मा समग्र में ब्याप्त है। और सब को सभी परिस्थितियों में एक समान देखता है। वह न ही ज्यादा पाकर बहुत ज्यादा बहुत सुखी होता है और ना ही कभी किसी प्रकार के बड़े दुःख को आने पर दुःखी ही होता है। वह दोनो में एक समान रहता है। जो व्यक्ति ऐसे है उनकी आत्मा को एक देशीय नहीं कहा जा सकता है। उसके लिए अपना पराया कोई भी नहीं है वह दोनो से परे है परमात्मा की तरह अन्तर सिर्फ इतना है। आत्मा जब स्वयं में ही केन्द्रित है तब त् एक देशीय है। आन्तरीक जो चेतनता है यह सब उसी से सम्भव है अन्यथा यह शरीर तो लास मिट्टि के पुतले के समान है। सारी उर्जा तो शरीर में भी विद्यमान है और सब का श्रोत आत्मा है। जिस प्रकार से कमप्युटर है उसी प्रकार से यह शरीर है। बिना बिजली रूपी उर्जा के यह कमप्युटर रूपी मसीन कार्य करने से इन्कार कर देता है। कमप्युटर बिना बिजली के  सिवाय एक डीब्बे के और क्या है? इसी प्रकार बिना आत्मा के यह शरीर भी उसी प्रकार से है।
   प्रकृति जो जड़ है जिसमें सिर्फ सत् है इसमें ना चेतनता है ना ही आनन्द है जिसे भौतिक पदार्थ कहते है यह सब प्रकृती में आता है।
   इस ब्रह्माण्ड यही तीन सत्तायें है और इसी को जानना है।  जो शाश्वत है। प्रकृति के अन्दर एक गुण है आत्मा के अन्दर दो गुण है और परमात्मा के अन्दर तीन गुण आते है। प्रकृति जिससे शरीर बनी है। इसके अन्दर ना ही चेतनता है और ना ही किसी प्रकार का आनन्द ही है इसमें सिर्फ भ्रम और पाखण्ड के कुछ नहीं है। यानी जड़ है मन के अन्दर दो गुण है वह आत्मा के शक्ति से चेतनता को उपलब्ध करता है और प्रकृति से जड़ता को, चेतन और जड़ जो दोनो के मिश्रण से बनता है। इसमें प्रकृति का गुण जो शरीर से प्राप्त करता है। तीसरी सत्ता आत्मा है जो परमात्मा के गुण को धारण करने का सामर्थ रखती है। जिस प्रकार आग के पास लोहे के रहने से आग के गुण लोहे मेंआ जाते है। उसी तरह से आत्मा जब परमात्मा के पास रहती है तो उसके गुणों को वह प्राप्त कर लेती है। जो आत्मा का निखरा हुआ रूप है।
   जिस प्रकार दुध का निखरा हुआ रूप घी है उसी प्रकार से आत्मा अपने को निखार लेती है साधना के माध्यम से तो वह पारमात्मा जैसी हो जाती है। भग में लिंग अग्नी में पारा उसको जानो गुरु हमारा। अर्थात जिस प्रकार से भग अर्थात (योनि) के अन्दर लिंग रहे बिना स्खलन के हुए अथवा जिस प्रकार से अग्नि के अन्दर पारा रहता है। जब आत्मा ध्यान की साधना के द्वारा निखर जाती है तो वह परमात्मा मय हो जाती है। तब उसमें तीन गुण आ जाते हैं।  प्रकृति का गुण जड़ता यानी सत्यता, यह शरीर सत्य है जो परीवर्तनशील है।  यह परमात्रमा का एक गुण है। सत्य अर्थात जो परीवर्तनशील हर पल नया है। दूसरा गुण मन की चेतनता  यानी जागरुकता तीसरा गुण आनन्द है इसलिए ही उसको सत्य-चित्त-आनन्द कहते है, और इस सत्य चेतना यानी आत्मा के आनन्द को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम उदेश्य है, और इसको जानने के बाद जो उपलब्ध होता है। इसका सार रहस्यपूर्ण अगोचर अदृश्रय आनन्द जिसे मैं चोथी सत्ता कहता हूं। वैज्ञानिक भी एक चोथी सत्ता को स्वीकार करते है जिसे वह क्वार्क के नाम से जानते है। जिस प्रकार दुध से दही, दही से छाछ और छाछ से घी निकलता है। यह सब मथने के बाद मिलता है। बिचार मंथन करना है शरीर जो दुध की तरह से है। इसको पहले समझना होगा जो अपना पहला चरण है।        
    एक बहुत बड़ा महात्मा बुद्ध का जापान में प्रसिद्ध आश्रम था उसका जो मठाधीस था असके अन्दर कुछ आगई वह आलसी प्रमादी हो गया जिसके कारण वह बहुत गंभीर कठीनाई से घीर गया था। उस आश्रम के भिक्षु भी आलसी और दुराचारी प्रवित्ती के हो गये। वे अपनी सभी साधनाओं को करना छोड़ दिया और जो आगन्तुक भिक्षु थे वह भी वहां से जाने लगे और जो वहा पर थे वह भी यु ही पड़े रहते किकंर्तव्य मुढ़ों की तरह। यह सव देख कर उस आश्रम के जो सहयोगी और विश्वास पात्र व्यक्ति थे वह भी उस आश्रम से दूर दूसरें आश्रमों कि तरफ रुख करने लगें वह आश्रम उन्हे रेगीस्तान जैसा प्रतित होने लगा।
   उस आश्रम का जो मठाधीस था वह भी अन्त में उस आश्रम के छोड़ कर बहुत दूर एक दूसरे सन्यासी के पास गया। वहां जाने के बाद उसने अपने आश्रम के पतन की सारी कहानी उस दूसरे मठाधीस को सुनाया। उस मठ के महन्त की बहुत तीब्र व्यग्र इच्छा थी की उसका आश्रम पुनः उसी सम्मान को प्राप्त करें जो उसका अतीत काल में लोगों के दृष्टि में पहले सम्मान और आदर सत्कार श्रद्धा थी।
   जिस सन्यासी के पास वह मठाधीस गया था उस सन्यासी ने बड़ी सहानुभूति से उसकी सभी बातों को सुना और उसके आखों में झाकते हुए उसने कहा तुम्हारें आश्रम के पतन का मुख्य कारण है कि तुमने अपने भिक्षुओं के मध्य में क्षद्मवेस में महात्मा बुद्ध भी रह रहे थे तुमने उनको कभी आदर सत्कार सम्मान नहीं दिया। मठाधीस बुरी तरह से कांप उठा और पैर के निचे से जैसे जमीन खीसकने लगी, उसके मन में महशुस हुआ की वह रसातल की यात्रा पर निकल पड़ा है।  
   वह अपने आश्रम में ऐसे रहता था जैसे एक निस्वार्थ व्यक्ति रहता है। उसने कहा यह कैसे संभव होगया की महात्मा बुद्ध हमारें भिक्षुओं के मध्य में रहते थे? और मैनें उनको पहचाना नहीं।  
    वह मठाधीस अपने पुराने आश्रण में वापिस आया और अपने सभी भिक्षुओं को वह सब कुछ बताया जो उसको दूसरें आश्रम के मठाधीस ने उससे कहा था, की तुम्हारें आश्रम में महात्मा बुद्ध भिक्षु के रूप में रहते थे और तुम उनको सम्रमान नहीं देते थे। सारें भिक्षु एक दूसरें को आश्चर्य से देखने लगें और सब में उनको महात्रमा वुद्ध के होने का भान होने लगा। क्योंकि यह कोई नहीं जानता था कि किसके अन्दर महात्मा वुद्ध की आत्मा है और उनके मध्य में कौन है जो महात्मा जैसा है। इसलिए वह सब प्रत्येक का सम्मान करने लगें क्योंकि उसमें से कोई भी हो सकता है। अर्थात सब में महात्मा वुद्ध निवास करते है। उस आश्रम के प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव ही बदल गया। यह देख कर उस आश्रम के पूराने विश्वास पात्र सहयोगी लोग पुनः आने लगे और उस आश्रम में फिर से पहले की तरह से कोपलें खिलने लगी। नये आगन्तुक भिक्षु आकर अपनी साधना में लगने लगे, उस आश्रम का पूरा का पूरा काया कल्प ही हो गया। जो आश्रम उजड़ गया था उसमें फिर से नइ कोपले खिलने लगी और वह आश्रम उसी आदर सम्मान और लोगों की श्रद्धा, गौरव, ऐश्वर्य का प्रमुख केन्द्र बन गया।
   इस कहानी का इतना अर्थ है की परमात्मा तो हम सब के प्रत्येक प्राणी के अन्दर विद्यमान है। यदी हम सब को ऐसे देखे की सब में परमात्रमा है। तो हम सव का ऐश्वर्य ही बढें और इसके विपरीत देखते है तो वही होती है जो उस मठाधीस और उस आश्रम का हुआ था। यही हम सब के साथ भी हो रहा है। अपने दृष्टिकोण को बदलते ही सृष्टि जगत बदल जाता है।    
  इस शरीर में कुल आठ चक्र हैं जिसे योगी जाग्रीत कर लेते है वही आठों जगह आत्मा का केन्द्र है जहां से आत्मा मुख्यतः जुड़ती है उन्हीं आठ अस्थानों को चक्र के नाम से जानते है। पहला मूलाधार जो मानव लिंग के पास होता है जो सामान्य जन होता है उनकी आत्मा शरीर छोड़ते समय उसी से निकलती है। दूसरी बात जब पुरुष स्त्री के गर्भ में अपने विर्य को सिचंन करता है। वह उसी चक्र के जाग्रत होने से ही होता है। जिसका वह चक्र जाग्रत नहीं होता है वह नपुसंक होते है। उनमें बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं होती है। जिस प्रकार घोड़े और गदही के संयोग से जो प्रजाती पैदा होती है खच्चर वह भी इसी प्रकार की होती है। यह सबसे निकृष्ट मार्ग कहा गया है। आत्रमा के निकलने और भी कई मार्ग है जैसे दूसरा चक्र स्वाद्धिठान है जो लिंग के उपर और नाभी के निचे होता है। तीसरा मणीपूरा है जैसा की नाम से ही प्रतित हो रहा है यह मणी कै केन्द्र है। यह मणी हीरा-मोतीयों वाला नहीं है। इसी चक्र से आत्मा नाभी से जुड़ी होती है, जिससे बच्चा मां की गर्भ में जुड़ा होता है एक पतली नालि से जिसको जन्म के बाद काट दिया जाता है। पुनः बच्चा अपनी नाक, कान, आंख, गुदा, जनेन्द्रिय आदि इन्द्रियों का प्रयोग करता है। जन्म से पहले मां के साथ बच्चा उस नाल से एक होता है वह अपनी इन्द्रियों का पहली बार करता है। इसलिए ही इस चक्र को मणीपूरा कहते है। चौथा चक्र हृदय के पास होता है। हम यहां पर के एक सरसरी नजर से देख रहें है जबकि उसके बारें में जानते है और उसको साध लेते है वह आनन्द को उपलब्ध होते है।  वह मानव औरों की तुलना अधीक स्वाभाविक जीवन्त और प्रसन्नचित्त रहता है। प्राण हीलिंग चिकित्सा का आधार यही चक्र है यह पद्त्ति चिन में बूहुत अधीक प्रचलित है। बह सब इसका दावा करते है कि किसी भी प्रकार की बिमारी का इलाज वह चक्रों के माध्यम से कर सकते है जो चक्रों को जाग्रत करके करते है। इसमें पूण्यता और आन्तरिक स्वच्छता की काफी आवश्यक्ता पड़ती है। और मैं कहता हूं की मनुष्य की सारी बीमारी का इलाज ध्यान के माध्यम से कर सकता हूं। क्योंकि यह आध्यात्मिक शक्ति है जिसका सुबिधा पूर्वक प्रयोग करके वह सब कुछ किया जा सकता है जिसकी जीवन में तृष्णा है। पाचंवा चक्र गर्दन के पास काक कुर्णुम पतन्ञजली इसके बारें में कहते है योग दर्रशन में बिस्तार से किया है उस पर भी विचार आगे किया जायेगा। छठा महत्त्वपूर्ण चक्रों में से एक है जिसे आज्ञा चक्र कहते है यह दोनों आखों के मध्य में भ्रुमध्य ललाट जो सामने मस्तक के केन्द्र में यह बहुत जल्द जाग्रत किए जा सकते है। जिसे शिव नेत्र के नाम से पुकारते है या कहा जाता है। सातवां चक्र कपाल खोपड़ी के आगे होता है जिसे ब्रह्मरन्ध्र भी कहते है, और अन्तिम आठवां चक्र जिसे सहस्रत्र कमल कहते है। यह हमारें सर के बिल्कुल मध्य में जहां पर हिन्दुओं की चोटी होती है। इसका अपना ही आनन्द और रहस्य है। आन्तरीक जगत की ओर एक संकेत है। इसलिए लोग आज भी इस परम्परा को श्रद्धा के साथ रखते है। इस चक्र परम्परा का प्रारम्भ यही से हुआ है। इसकी खास बात यह है की इससे जिस मनुष्य की चेतना निकलती है तो वह मोक्ष निर्वाण को उपलब्ध होता है। हमारी रीढ़ की हड्डी  में दो नाणीयां मुख्य होती है इनको इंगला पिगंला के नाम से जाना जाता है। उनके मध्य एक सुक्ष्म नाड़ी होती है। जिसे सुस्मणा कहते है। इसी नाड़ी में सारें आठ चक्र होते है। इसको जाग्रत करने के लिए कुण्डली को जाग्रत करना पड़ता है। जब   कुण्डली ध्यान के प्रयोग से जाग्रीत हो जाती है। तब आत्रमा जो अधोगती करती थी वह उर्ध्व गती करने गती है, और मृत्यु के समय जा ग्रत अवस्था में ध्रयानस्त हो कर सहष्त्र कमल से नीकलती है। जिससे मोक्ष या मुक्ति निर्वाण को उपलब्ध होता है। अपनी आत्मा जो दूसरी बात कह रही है इस मंत्र में वह है। अग्निनाग्निः समिध्यते। अग्नि के द्वारा अग्नि भली प्रकार चमकती है अर्रथात प्रेम से प्रेम बढ़ता है और शत्रुतता से शत्रुतता ही बढ़ती है ज्ञान से ज्ञान और अज्ञान से अज्ञान ही बढ़ता है।
   नौ द्वार अर्थात यह शरीर नौ द्वारों वाली है। जहां पर देवता रहते है उनके देख रेख में इन सारे द्वारों से जो सब कुछ आता-जाता है उसका सारा कार्य होता है, और इसे पुरी अयोद्धा के नाम से जानते कहते है। अर्थात यह शरीर एक सामराज्य की तरह है। जिसका मंत्री मंत्रो को जानने वाला मन है। और इसका राजा आत्मा है। और इन्द्रिया इसकी प्रजाए है जिसमें पांच मह तत्त्व यानी अग्नी, वायु, पृथ्वी, आकाश, जल, जिससे यह स्थुल शरीर बना है। पांच कर्म इन्द्रियां हाथ, पैर, गुदा, लिंग है। जो कर्म करते है आत्मा के लिए। पांच ज्ञानेन्द्रियां है आख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, इनसे आत्मा को ज्ञान प्रप्त होता है। सोलहवां मन और सत्रहवां बुद्धि है। शरीर माद्धयम खलु धर्रम साधनम् । यह शरीर सबसे बड़ा धर्म को अर्जीत कमाने वाला साधन रूपी भौतिक धन है। शरीर भी पांच प्रकार के बताए गए है। अन्रमय का तैत्रीय उपनिषद की ब्रह्मानन्द बल्लि के दुसरें अनुवाक में किया गया है और वह अन्यमय हमारा पाचंवा शरीर है।
    तस्माद्वाएतस्मादन्नरसमयादन्योऽन्रतरप्राणमयःतेनैषपूर्णः।
   अर्थात उस प्रतिपादन किये गये अन्न रस के बने हुए शरीर के अन्दर और शरीर से अलग प्राण तत्त्व है। इस प्राण तत्त्व से शरीर पूर्ण है। यह प्राणमय भी एक कोस है। जो अन्नमय कोस से भी सुक्ष्म रूप से शरीर में व्याप्त है।
   तस्माद्वाएमस्मात्प्राणमयादन्योंन्तरआत्मामनोमयःतेनैषपूर्णः।।  
   अर्थात उस प्राणमय कोश के अन्दर उससे अलग उससे सुक्ष्म आनन्दमय कोश है। यह पांच प्रकार की स्थुल से सुक्ष्म शरीर है।                           
   एक इल्लि पेड़ पर रहने वाला किड़ा था। वह बहुत ज्यादा उदास और दुःखी रहता था। क्योंकि उसके चारों तरफ का जो वातावरण था उसको बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। जिस वृक्ष पर वह रहता था उस पेड़ के डालियों पर जो पत्ते थे वह आधे मुरझाए और पिले पड़ गए थे। और उन पत्तो का स्वाद भी बहुत बुरा लगता था। हवायें बह रही थी मौसम बहुत ठण्डा था उस इल्ली को यह सब जरा भी पसन्द नहीं था।
   उसका पेड़ अकेला नहीं था। वहां पर और भी पक्षी पंख वाले रहते थे। उसको कोइ भी अच्छा नहीं लगता था उसके पड़ोस में एक पेड़ पर एक चिड़ीया भी रहती थी वह उस इल्ली के पेड़ से अच्छा पेंड़ था। वह इल्ली को अच्छा नहीं लगता था वह इल्ली बहुत भयभीत रहता था क्योंकि वह चिड़ीया उसको खा सकती थी। वह सुर्य के प्रकाश में भी अपने रोंयेदार पंजे को नहीं हीलाता था।अवने पैरों के हमेंशा अपने पेट से चिपका कर रखता था। उसके लिए वह पूरी घाटी का पूरा वातावरण सम्पूर्ण प्रकृति जैसे उसके बिरुद्ध में हो ऐसा उसको प्रतित होता था। उसको हर तरफ से केवल अपने जीवन के लिए नकारात्मक पहलु ही हर कोड़ से दिखाई देता था। वह हर पल हर समय बहुत दुःखी और कष्ट, पिड़ा, संताप में ही रहता था।
   लेकिन एक दिन अचानक जब वह इल्लि सो कर उठा धुंधलापन और अस्पष्ठता के साथ। लेकिन जब उसने अपने चारों तरफ देखा तो अजीबोंगरिब आश्चर्य चकीत प्रसन्नता के साथ बहुत आनन्दित मुसुस कर रहा था। उसके अन्दर कुछ अलौकिक अनुभूतियों का स्पन्दन हो रहा था ,जैसे ही उसने इस अद्भुत स्पन्दन के स्वाद का रस मिला उसने निश्चय किया की आज वह अपने दीन का प्रारम्भ करेंगा। आज स्वयं से उसको किसी प्रकार की कोई शीकवा या शीकायत नहीं थी। आज उसको जीवन का हर तरफ प्रकाश और उज्जवल पक्ष ही दिखाई दे रहा था। अब उसको मौसम से कोई शीकायत नहीं था कि वह कैसा है ना ही उसको अपने बगल में रहने वाली चीड़ीया से ही किसी प्रकार का कोई भी भय नहीं था, ना ही उसको पेड़ के मुरझायें पिले पत्तों से भी कोई शीकायत नहीं थी।  
   आज वह समझ गया की यह सारी वस्तु उसके दुःख का परेशानी का मूल कारण नहीं है और इनके अन्दर वह सामर्थ्य भी नीं है जो उसको दुःखी कर सके। वह सब बस्तुयें तो पहले जैसी ही थी। उनमें किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं आया था। बदलाव तो उस इल्ली का भीतर आया था जिसके कारण सारा जगत उसको लिये आज आनन्द को बरषाने वाला बन गया था। और उसको आज वह सभी वस्तुयें जिससे कभी उसको दुःख होता था वहीं आज उसके आनन्द कारण बन गई थी। उसने अपने अन्दर महशुस किया की स्वयं के अन्दर ही अत्यधीक आनन्द बढ़ रहा है। उसने अपने अन्दर पूर्रण उर्जा के बिस्फोट को को अनुभव कर रहा था। आज स्वयं को वह बहुत सुरक्षीत महशुस कर रहा था। जबकी चिड़ीया भी थोड़ी दूरी पर एक दूसरें पेड़ पर अपने पोखों को फड़-फड़ा रही थी। आज उसको उस पेड़ के पत्तें पहले से कहीं अधीक हरों और रस भरे लग रहे थे और मौसम कल से अधीक गर्म और खुस गवांर लग रहा था। वह अपनी शरार को भी पहले कहीं ज्यादा स्वस्थ्य और ताजा लग रहा था। वह न ही ज्यादा पतला और ना ही वहुत ज्यादा मोटा ही था। वह इस समय जैसा भी था स्वयं को बहुत श्रेष्ट महशुस कर रहा था। आज वह स्रवयं को वहुत किमती समझ रहा था। उसकी दृष्टि अविश्वसनीय रूप से अत्यधीक साफ और स्पष्ठ हो गई थी। जैसे ही उसके आखों पर से किचड़ का पर्दा हटा और उसने देखा कुछ छोटे-छोटे उर्जा पुंज की तरंगें उसके चारों तरफ गुंज रही थी, उसके नरम लचीलें और लम्बें शरीर में। यह सब उसको सहज सरल उत्सवमग्न लग रहा था।
   कहानी का अर्थ इतना है की स्वर्ग और नरक यहीं पर हैं। यह एक मानसीक स्थिती है। यह तब बदलता है जब हमारें अन्दर बदलाव आता है। वह तत्क्षण बदल जाता है। वह केन्द्र है जहां पर सारें परीवर्न होते हैं वहां की कोई वस्तु हमें प्रभावित नहीं करती है। क्योंकि हमारें अन्दर जो खजाना है उसे मानव नहीं जानते हैं और जो उसको जो जान जाते है। वह अफना स्वर्ग वहीं पर पैदा कर लेते है जहां पर वह होते हैं।
   यह आत्मा बहुत बलवान है और आत्मा ही सभी प्रकार के बल का आश्रय केन्द्र है, और सारें बल का देने वाली हैं। इसकी सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड उपासा करता है। आत्मा की छाया अमृत के समान है यस्य इसको जानकर ही मृत्यु से परें चले जाते है। जो आत्रमा को जानते है उनको किसी और देवता की किसी प्रकार की साधना नहीं करनी पड़ती है। या जो आत्मा को जान लेता है वह और किस देवता की उपासना करें हबी देकर अर्थात अपनी आत्मा को जागृत करना है और सब कुछ वयर्थ है। आत्मा का समबन्ध अन्तर्जगत से है। बाहरी जगत तो मात्र आत्मा की छाया मात्र है।
  एक बार राम कृष्ण परमहंस एक गावं में पहुंचे वहां एक घर के सामने उन्होंने एक बच्चे को रोंते हुए देखा। वह बच्चा अपनी परक्षाई को पकड़ना चाहता था और वह अपनी परक्षाई को पकड़ नहीं पा रहा था। क्योंकि वह अपने हाथ आगे उठा कर के बार-बार परक्षाई को पकड़ने के लिए आगे बढ़ता और हर बार उसकी परक्षाई उसके हाथ से आगे निकल जाती थी। यह देख कर उसकी मां भी काफी चिन्तीत थी की वह क्या करें? अपने बेटे को कैसे समझायें? रामकृष्रण ने जब देख3 तो वह समझ गये मां और बच्चे दोनो की परेशानी उनको समझ में आगई। उन्होंने तुरन्त बच्चे का हाथ पकड़ कर उसके सर पर रख दिया और उस बच्चे का हाथ जब अपने सर पर पड़ा तो उसकी परक्षाई उसके पकड़ में आ गई और बच्चा बहुत खुस हुआ।
   कहानी का अर्थ इतना है कि यदि आत्मा को जानना है तो वह स्वयं के अन्दर ही पकड़ी या जानी जा सकती है। उसके वाद ही हा सब उसको अपने बाहर भी पकड़ या जान समझ सकते है। लोग कहते है कि आत्मा प्रत्येक कड़ में व्याप्त है। ऐसा वेद भी कहते है और यह एक शाश्वत अपरिवर्तनिय सत्य है। लेकिन वह तब तक नहीं देखी जा सकती है जब तक उसको हम सब अपने अन्दर नहीं देख लेते है क्योंकि जब आत्मा हम उसको अपने अन्दर पहचान लेते है तभी हम अपने बाहर भी सभी में देख या पहचान सकते है। जिस प्रकार से यदि किसी स्त्री प्रेम किया है तो हम दूसरी स्त्री से भी आसानी से प्रेम कर सकते है प्रेम दो शरीर के मिलन को नहीं कहते है यद्यपि प्रेम दो आत्माओं के मिलन को कहते है। परमात्मा को उपलब्ध प्रेम एक शसक्त माध्यम है। जैसा की कवीर कहते है कि पढ़त-पढ़त जग मुआ पंडीत हुआ न कोई ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडीत होय। अन्यथा प्रेम क्या है उससे हम सब अनभिज्ञ रहते है। प्रेम का सिर्रप ढोंग ही रहा है आज सम्पूर्ण संसार में और उसी को प्रेम समझा जा रहा है। क्योंकि ढोंग करना सरल है। दूसरा मंत्र कहता है ईसमें ही साम, यजु, अर्थव, और ऋग है। यह सब आत्मा से ही निकलते है। ऋगवेद का मतलब है जितने भी प्रकार का ज्ञान है वह सब ऋगवेद में है जो सबसे प्रचिन है। जो आत्रमा की बी उत्पत्ती है। यजु का मतलब है जितने प्रकार के कर्म है और कर्मकाण्ड की जितनी भी संभावना है वह सब यजुर्वेद में है। साम अर्थात जितने प्रकार के गायन या संगीत से संबन्धीत ज्ञान है वह सब सानवेद में है। अथर्ववेद अर्थात विज्ञान के प्रत्येक विषय का संग्रह है। जो सब आत्मा से ही आया है। आगे मंत्र कहता है। जिस प्रकार से रथ होता है और उसमें धुरा जुड़ा होता है उसी प्रकार से यह सभी वेद भी जुड़े है।
   विश्वायुर्धे ह्यक्षितम्। मनुष्य को हमेशा इस प्रकार से रहना चाहिये जिससे शरीर, मन, आत्मा को किसी प्रकार का कष्ट ना उठाना पड़े, अर्थात प्रेम और सद्भावना पूर्वक रहना उचीत है। स्वयं और दूसरें प्राणियों के लिए अवने जैसा व्यवहार करना चाहिए। ये सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान का जो श्रोत है वह सब हमारे तन शरीर में जो मन है उसके साथ हम सब का मन शिव संकल्प वाला हो। अर्थात परमात्मा में लगा रहें, नही तो यु मन बहुत खतरनाक रूप धारण कर लेता है और तब इसको सही मार्ग पर लाना बहुत कठीन हो जाएगा। क्रयोंकि इसके पास अद्भुत शक्ति का भण्डार है। मन जिसका दुरप्रयोग करेगा जैसा कि आज मानव मन कर रहा है। स्वयं का सर्वनाश। आत्रमा की महानता को इतनी आसानी से समझ जाए तो एक आश्चर्य ही होगा। अन्तःप्रज्ञा का तात्पर्य है अपना आन्तरीक शक्तियों को जाग्रत करना और उनको अपने जीवन में उपयोग करना और जीवन को उससे सम्पन्न कर लेना , जिसे ऋतम्भरा भी कहते है अर्थात जब आपकी प्रज्ञा बुद्धि ऋत शाश्वतत्ता से भर जाती है। उसे अन्तःप्रज्ञा कहते है। यह अन्तःप्रज्ञा दो शब्दों को आपस में जोड़ कर बना है अन्तः अर्थात आन्तरीक इन्टर्नल जो शक्तियां है। दूसरा शब्द प्रज्ञा है जिसका अर्थ है प्र अर्थात जो पहले से उपलब्ध या विद्यमान है। ज्ञ का अर्थ है ज्ञान जो जानने योग्य है जैसा की लोग कहते है कि फला बस्तु ज्ञ है और फला बस्तु अज्ञेय है। जिसको जितना भी जान लिया जाया वह कम ही है या उसको पूर्णतः जान पाना दुर्लभ, मुस्किल ही नहीं असंभव है। यहा प्रज्ञा का तात्पर्य है जो ज्ञान पहले से ही उपलब्ध या विद्यमान है। ज्ञान का मूलभुत आधार सद्गुण अर्थात विर्च्यु है। अब सद्गुण क्या है इसका उत्तर पतञ्जली देते है।
   मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त्प्रसादनम्।। अर्थात यह सब प्रसाद की तरह है स्वयं में इतनी क्षमता का होना जिससे स्वयं के सामने आने वाली समस्यायों का सामना समाधान कर सके और स्वयं के शत्रुओं से जो आन्तरीक है। बाहर तो कोई शत्रु है ही नहीं उनको हम सब अपनी कल्पना से पैदा कर लेते है यहां पर आन्तरीक शत्रुओं की बात हो रही है। जो मानव का सबसे बड़े और भयानक शत्रु है जिसकी बाहरी किसी भी शत्रु से तुलना नहीं किया जा सकता है जिसमें सबसे पहले अहम् का नम्बर आता है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, शोक, भय, प्रमाद, आलस्य, ईर्स्या, जलन, घृणा, मद जिनका दमन करना पड़ता है जिस प्रकार से एक राजा का कार्य होता है वह अपने देश और राज्य को बाहरी आताताई ताकतों का दमन करता है और अपनी जो आन्तरीक मानसिक वृत्तियां है उनको उठने से पहले ही उनके सर को कुटल देता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, यह सारें उर्जा के प्रवीह के नाम है। इसमें जो सबसे प्रमुख काम है जिसके लिए गीता में कृष्ण कहते है।
ध्यायतो विषयान्पुसः संग्ङस्तेषपजायते।
संग्ङात्सज्ञायते कामः कामत्क्रोधोभिजायते।।
क्रधाभ्दवित सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशत्यप्रणश्यति।।
  विषयों के चिन्तन करने वाला मन पुरुष की उन विषयों में आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। काम की तृप्ती न होने से या फिर बिध्न पड़ने सो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मुढ़भाव उत्पन्न हो जाता है और मुढ़भाव से स्मृत्ती में भ्रम पैदा होता है। स्मृति में भ्रम होने से बुद्धी का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से पुरुष अपने स्थिति से गीर जाता है उसका पतन हो जाता है। इसके बाद तो वृत्तियों का प्रारम्भ होता है। यह काम सबसे प्रमुख है सबसे पहले मन में किसी वस्तु को पाने कि तमन्ना कामना उपस्थित होता है फिर उसे पाने के दो रास्ते है अक सरल और दूसरा कठीन है। जैसा की अर्जुन के सामने दो प्रकार के मार्ग है एक तो वह युद्ध नहीं करना चाहता था वह युद्ध से भागने की इच्छा रखता था, और दूसरा मार्ग कठीन था जिसके लिए ही महात्मा योगेश्वर कृष्ण उसके लिए गीता में उपदेश कर रहें है और अर्जुन को युद्ध करने के लिए तैयार कर रहें है। इसको वह ज्ञान का मार्ग कहते है। जो मार्ग सरल है उस पर ज्यादा से ज्यादा लोग चलना चाहते है जो मैदान छोड़ कर भागने का मार्ग है। क्रयोंकि लोग अपने लक्ष्य को जल्दी से जल्दी प्राप्त करना चाहते है। लेकिन इसमें एक समस्या भी आती है जिसमें बहुत जल्दी स्वयं के नाश की सम्भावना भी बढ़ जाती है। जैसा कि कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का काम है। उसमें कुछ ना कुछ उसमें कमिंया अवश्यमेव रह ही जाती है। जिस प्रकार से लोग जल्दी से जल्दी अमीर बनना चाहते है उसके लिए भले ही उसको ऐसे मार्ग पर चलना पड़े जो सार्टकट जो उसके योग्य नहीं है। जैसे कि कोई नेता या मंत्री होते है। वह ऐसा घोटला करता है कि उससे उसके सात पुस्ते आराम से जीवन बिता सके, लेकिन होता इसके बिपरीत है। क्योंकि जो बस्तु बिना परीश्रम के द्वारा कमाया जाता है। उसके लिए बिशेष ध्यान दिया जाता है। तुम सब स्वयं देख सकते हो। कि लोग अपने-अपने घरों में पानी विसलरी का वाटर खरीद कर लाते है और उसका बड़ा सद्उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ किसी नदी को देखें तो यहीं लोग उसमें दुनीया भर कुड़ा, करकट, मल, मुत्र, गन्दगी, मलबा, भयंकर बिशैली गैसे केमिकल बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के डाल कर उसको प्रदुषित करते है। अपने निजी स्वार्थ के वशीभुत हो कर इनको यह ज्ञान नहीं ऐसा नहीं लोग सब कुछ जान कर ऐसा करते है। यह पानी कितने जीव, जन्तु, प्राणीयों के लिए आवश्यक है। फिर भी उसका यह सब लोग मिल कर उसका सर्वनाश कर रहें है। क्योंकि यह सब होस में नहीं है यह सब अपनी बेहोसी में ही कर रहें है। इन सब पर काम सवार हो गया है जिसकी बात कृष्ण कर रहें है।      
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्रमफलप्रदाम्।।
   काम जो किसी का नमों निसान मिटाने के लिए परयाप्त है अब दिल्ली की जमुना को ही देख लें  उसका अस्तित्त्व ही खतरें में आगया है और इसके विपरीत यदि इसको प्रदुषण से बचाना है तो बड़े-बड़े जुर्माने को लगा दे तो वह बच सकती है। यह दमन का एक तरीका है।      
   इन्द्रं पृच्छ बिपश्चितम्। अज्ञान को दूर या नष्ट करने वाले ज्ञानी विद्वान से पूछ-ताछ कर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहिए। जब किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना है तो बहुत सावधानी पूर्वक यह कार्य करना चाहिए। उस समय यह भी देकना चाहिए की जिस से हम ज्ञान लेने के लिए चले है वह इस योग्य भी है कि नहीं। वह हमारें अज्ञान को नष्ट कर के उसके अस्थान पर जिस बिषय का ज्ञान दे सके, और परमात्मा ही सब का गुरु है।
   यह तो सरलता की बात है। एक कठीन कार्य भी है जिसकी तरफ लोग आज बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते है। क्योंकि लोगों के पास विचार करने की क्षमता का हरास हो गया है। जो यह जानता है की परमात्मा उसको देख रहा है तो वह सार्टकट का मार्ग नहीं पकड़ता है। वह अपनी कामनाओं की कामना का दामन करके जो उसके जीवन कि सबसे प्रमुख परमात्मा कि शरण में रहने के सिवाय कुछ नहीं जानता है। क्योंकि परमात्मा तो अन्तर्तम में उपस्थित है और वह उसकी सारी जरुरतों को समझता है उसकी पुर्ति भी करता है। जैसा की पतञ्जली कहते है निर्विचारवैशारद्यअध्यात्मप्रसादः। अर्थात जो परमात्मा की साधना में लग जाता है स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित करता है। आत्मनेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।  जो आत्रमा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस दशा में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। उसका परमात्मा स्वयं ध्यान देता है साधक का इतना सा अर्थ है कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करता है और संयम को धारण करता है यह संयम दमन का पर्यावाची है।
   दमन का यह अर्थ नहीं है कि वह उनको बांधता है यद्यपि वह सिर्फ देखता है स्वयं का जो हस्तक्षेप अपनी इन्द्रियों और मन के साथ होता था उसे वह रोक देता है या वह उनसे तदात्म नहीं जोड़ता है। वह देखता है जो बी घटना शरीर में घटती है जिसमें संयम आ गया उसके जीवन में सिद्धयां स्वयं आ जाती है। उसके लिए किसी प्रकार के सार्टकट के मार्ग कि कोई आवश्यक्ता नहीं पड़ती है और यह धर्म का एक प्रमुख चरण है।    
   अस्तेयप्रतिष्ठायामं सर्वरत्नोंपस्थानम्।
  जब अस्तेय कि प्रतिष्टा किसी के जीवन में हो जाती है तो उसको सर्वरत्नों की उपलब्धी होती है।
   मुख्य रूप से तीन तरह के लोग होते है जिनकी संख्या सबसे अधीक है वह सब ऐसे लोग है जो बिना विचारें ही अपना प्रत्येक कार्य करते हैं। वह अपना सारा कार्य अपनी वासना के वसी भुत हो कर ही करते है। काम अर्थात सैक्स का भुत चढ़ा तो सैक्स में लिप्त हो गये। क्रोध की वासना चढ़ती है तो उसमें लिप्त हो गये, लोभ की वासना सवार हुई तो उसपे सवारी कर लिया, भय कि वृत्ती ने स्वयं के उपर सवारी कर ली तो उसके साथ हो लिए, और ऐसा ही शोक दूसरी वृत्तियों के साथ भी होता है।
   मतलब यह सब मुख्य बृत्तियों के दास के सामने होते जिनका शोषण सबसे ज्यादा इस पृथ्वी पर होता है। इस तरह के लोगों को कौड़ीयों के दाम बेचा जाता था कुछ समय पहले तक जिन्हें दास के प्रथा के नाम से जानते है। सैक्स से पिड़ीत होते है तो सैक्स करते है पशु कि तरह उसमें रत हो जाते है यह लोग प्रायः मजदूर किस्म के होते है जो सारें विश्व का कार्य करते है। रोड बनाना फैक्ट्री मील में मकान पुल बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाने में कार्य करते है। इनके पास मनोरन्जन के लिए सिवाय स्त्री के शरीर को नोचने के और दूसरा कार्य नहीं होता है। दूसरें वह होते है जो विचार करके अपने प्रत्येक कार्य को करते है यह लोग केवल विचार ही करते है इसमें स्वयं का स्वार्थ निहीत है और यह स्वार्थ सिर्फ भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए किया जाता है जिसमें रजनेता, अभीनेता, व्यापारी, और सरकारी सेवाओं में जो अधीकारी पद पर लगे है। यह प्रायः उसी प्रकार की वासना का शिकार है। लेकिन यह शभ्य इसलिए कहे जाते है। क्योंकि इनको स्वयं के जीवन के बिकार को छुपाना आता है यह सब नकली लोग होते है। जो कहते कुछ है और कहते कुछ और है। यह सब अवसरवादी लोगों की तरह होते है। यह कहते है कि तुम भी ठीक हो और मैं ङी ठीक हूं यह सब को ठीक कहते है। अपने स्वार्थ फायदे की बात ही इनको समझ में आती है। इनका विचार उथला-उथला होता है सागर कि लहरों कि तरह इनको जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं होता है। ना ही यह जीवन की कोई अनुभूति ही रखते है। यह सारी की सारी यात्रा सिर्फ लहरों में ही करते हैं। मन को प्रसन्न करना ही इनका मुख्य सिद्धान्त है यह सब पश्चिम जगत के समर्थक है।
   इनके पास भाव नहीं है ना ही भाव को समझना ही इनके सामर्थ्य की बात है। स्वार्थ दो प्रकार के होते है। पतञ्जली भी स्वार्थ की ही बात कर रहें है लेकिन वह परम स्वार्थ की बात करते है। लेकिन जिसकी बात पतञ्जली कह रहें है इसको तीसरी तरह के जो लोग है वहीं समझते है। दूसरे वह है जो सणयन्त्रकारी है अनका विचार क्रान्तिकारी होता है। वह सिर्रफ विचार ही नहीं करते यद्यपि भाव की गहराई में उतरते है वह ध्यान पर सवार होते है उनके लिए ही यह धर्म सुत्र है। अस्तेय का मतलब स्वच्छता, पुण्यता, और निर्दोषता, निर्विचार भाव की गहराई में स्थित हो कर चिन्तन करना मनन करना प्रति पल जीवन के प्रति एक वाचमैन कि तरह जिस प्रकार से वाच मैंन प्रत्येक आने-जाने वालो पर नजर पर रखता है जिस तरह से सी-सी कैमरें कार्य करते है। वह जहा भी होता है हर आने-जाने वालों पर नजर रखता है और उसकी बाद में मनोवैज्ञानिक विष्लेषण किया जाता है किसी अपराधीयों को पकड़ने का कार्य किया जाता है। जबकी जो साधक होता है वह अपने स्वयं शरीर और मन इन्द्रियों पर इसी प्रकार से नजर रखता है। अश्रतेय का मतलब है चोरी करने के लिए किया जाता है। और चोरी भी दो प्रकार होती है। एक भौतिक होती है और एक मानसिक या आध्यात्मिक होती है।   
   सबिता स्तोम्म नु नः। केवल परमात्मा की स्तुती करने योग्य जिसने इस जगत को बनाया है, और इसमें निवास कर के बिचरण कर रहा है। वह स्वयं में भी हर पल रम रहा है या शांसे ले रहा है।
   भौतिक चोरी से बचना सरल है मगर मानसिक आध्यत्मिक चोरी से बचना कठीन ही नहीं असम्भव है। जो लोग भौतिक वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाते है लेकिन वह उस वस्तु पर मानसिक रूप से अवश्य अधीकार कर लेते है। मान ले कोई व्यक्ती किसी स्त्री को भौतिक रूप से नहीं प्राप्त कर पाता है तो वह उसको मानसिक रूप से वह लोग अवश्य सा्रभोग कर लेते है या फिर जो लोग काजोर, कायर, डरपोक किस्म के स्रत्री स्वभाव के होते है। मानसिक रूप से अपने शत्रु को नुकसान पहुचाते है या चोरी करते है। अस्तेय आन्तरीक जगत को स्वच्छ रखने की बात कहता है।
   एक अच्छा उदाहरण अस्तेय का उपनिषद् में मिलता है। दो भाई होते है, और वह दोनो ऋषि होते है, और दोनो का अपना-अपना आश्रम भी होता है एक बार छोटा भाई बड़े के आश्रम में चला जाता है, और उस समय उसके बड़ा भाई के वहां नहीं रहता है। उनकी गैर मौजुदगी में वह छोटा भाई अपने बड़े भाई के आश्रम के बगीचे से फल को तोण कर खा लेता है। जब उसके बड़े भाई आते है तो वह उनसे कहता है कि उसने उनके आश्रम के बृक्षों में से उनके ना रहने पर फल तोड़ कर खा लिया है।
  उसके भाई ने कहा यह तो अस्तेय चोरी किया है तुम ने। इसके लिए तुमको दण्ड अवश्य लेना चाहिए। अपने बड़े भाई की बात को सुन कर वह छोटे भाई ने कहा आप मुझको इसके लिए दण्ड दे दिजीये। उसके भाई ने कहा की दण्ड देना तो राजा का काम है और दण्ड के लिए तुमको राजा के पास जाना चाहिए।    यह सुनकर छोटा भाई तुरन्त राजा के पास गया और अपने अपराध के लिए जिद करके दण्ड लिया जिसके फलस्वरूप उसके दोनो हाथों को काटवा लिया गया था। यह अस्तेय की महीमा है। आज इस तरह कि कल्पना करना भी असम्भव है यहां तो इसके लिए बाकायदा प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन जो धर्म को जानते है। वह जथा शक्ति सम्रभव हो इससे स्रवयं को दूर ही रखते है।
   प्रचिन काल की बात है एक राजा ने रास्रते के मध्रय़ में एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा रख कर स्वयं वह छुप गया एक बड़े पेड़ के पिछे जो सड़क किनारें पर था। वह जानना चाहता था कि क्या उस पत्थर को कोई रास्ते हटाता है या नहीं। बहुत से उस राजा के राज्य दरबारी और उसके व्यापारी, कर्मचारी आए और उस पत्थर को एक तरफ से निकल गए। किसी ने भी उस पत्थर को वहां से हटाने का किसी ने भी जरा प्रयास नहीं किया यद्यपि लोगों ने भी उस जोर-जोर बोल कर उस राजा को ही ठहराते हुए कहा कि यह राजा सड़क को साफ नहीं रखवाता।





   कुछ समय के बाद उसी सड़क से एक गरीब किसान गुजरा जब उसने रास्रते में बड़े पत्रथर के टुकड़ें को देखा तो उसने अपने सर पर जो एक बड़ा गठ्ठर रखा था उसको किसी तरह से बड़ी मुस्किल से निचे उतार कर एक तरफ रख दिया। उस पत्थर को रास्ते से एक तरफ करनें के लिए जोर लगाने लगा और थोड़ी देर में किसी तरह से उस पत्थर को उठाया तो उसको उस पत्थर के निचे एक बटुआ मिला जब उसने उस पर्स को खोला तो उसमें सौ स्वर्ण मुद्रायें थी उसके साथ एक पत्र भी था जिसमें यह लिखा था की जो भी कोई इस पत्थर को रास्ते से हटायेंगा यह स्वर्ण मुद्ररा उसकी हो जाएगी। साथ में राजा के कोष का प्रतिक चिन्ह भी उस कागज पर था।  रोड के एक तरफ कर दिया। उसके बाद उस गरीब किसान ने अपने सब्जी के बोझ को फिर से उठा कर अपने सर पर रख लिया और अपने घर की तरफ चल पड़ा।
   उस किसान ने वह सब कुछ सिख लिया जिसको हम सब में से बहुत कम लोग सिख पातें है। प्रत्येक कठीनाई की उपस्थिति अपने लिए एक अवसर है। अपनी दसा स्थिति को सुधारने का।    
   इस पृथ्वी पर जो सबसे अधीक बदनाम है और भ्रमित करने वाला विषय प्रेम है। प्रेम कि ब्याख्या सिवाय शारीरिक सम्बंध बनाने से अधीक नहीं है।  

अन्तर्द्वन्द से अन्तर्यात्रा अन्तर्जगत के सागर की तरफ

कुर्वेन्वेह कर्माणि जीजिविच्छयते समाँ। एवं त्वयि नानथतोऽस्ति ना कर्म लिप्यते नरें।। अर्थात हे मानव सौ वर्षों तक तू जिने की ईच्छा कामना कर वह भी बीना कर्मों में लिप्त या तल्लीन हुए, अर्थात निस्काम कर्म करके। गीता में येगेश्वर कृष्ण यही बातें कहते है।
   
द्वितिय अध्याय
।। शून्य की नाव भाव की जिज्ञासा ।।
ओ3म् नमः शम्भवाय च मयोभवायं च।
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च।
नमः शिवाय च शिवतराय च।
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।

   कल्याण कारक प्रभु के लिए हमारा नमस्कार हो और सुखकारक सुख आनन्द का दान देने वाले प्रभु को हम सब का नमस्कार, और शान्ति दायक शान्ति को देने वाले उस सर्व शक्तिमान प्रभु को मेंरा नमस्कार, श्रद्धा और आदर भाव से और आदर भाव से मैं उसको नमस्कार करता हूं अत्यन्त मंगल रूप प्रभु के लिए हमारा बार-बार नमस्कार प्रणाम पहुचें।
   मतलब सिर्फ इतना है कि तुम जीवन को उसकी पूर्णता में नहीं जी रहे हो, क्योंकि कल की चिन्ता में आज को पूर्ण रूप से आनन्दित होकर नहीं जी रहें हो, हाँ जूने में रुकावट अवश्य खड़ी करते हो, कल कभी नहीं आता है। यह एक तरीका है स्वयं  को यातना, कष्ट, प्रताणीत और तरह-तरह के अविद्या आदि क्लेशों से क्लेशित रखने के लिए। इसके लिए ही तुम सब को लम्बे समय संस्कारीत किया गया है और आज भी यह सब निरन्तर किया जा रहा है, इसी के कल्चरल संस्कृति संस्कार नाम दिया है। और यह सब तुम सब के नश नाड़ीयों में रच वश गया है और तुम्हें ज्ञात ही नहीं है कि आखिर तुम हो कौन, तुम्हारा ना ही भुत है ना ही तुम्हारा भविष्य है। तुम्हारें पास तो केवल सिवाय तुम्हारा आज है, और आज को तुम अपने आने वाले कल कि चिन्ता में खर्च किये जा रहे हो की आने वाला कल अपने साथ साथ सुख सुबिधा और समृद्धि ले कर आयेगा। इससे बड़ा कोई बकवास हो सकता है। यह सब तुम्हारें जीवन को कबाड़ा सम्सान बनाना के लिए परयाप्त है। तुम स्वयं अपनी चिता सजाने में इतने अधीक ब्यस्त हो की भुल ही गए हो कि तुम्हारा वास्तवीक स्वरूप क्या है? इसमें तुम सब की कोई गल्ती नहीं है ऐसा तो तुम सब को बनाया गया। तुम सब का उपयोग किया जा रहा है। जिसे तुम अपना समझते हो वहीं तुम्हारें कब्र तैयार कर रहें है और यही बात समाप्त नहीं होती है उसमें तुम स्वयं भरपूर उनका सहयोंग कर रहें हो। क्योंकि यह जो समाज है और इसकी व्यवस्था रूपी जो सणयन्त्रकारी नीव वह एक दूसरें के शोषण पर ही आश्रीत है। जैसा की संस्कृत का एक कथन है की जीव जीवस्य भोजनम्। यह तो प्रकृत का स्वभाव है एक प्राणी दूसरें के जीवन का अन्रत करके ही अपने जीवन को बरकरार रख सकता है। लेकिन इसके लिए जो परम आवश्यक संयम सन्तुलन है वह मानव जीवन से प्रायः लुप्त हो रहा है। जिसकी वजह क्या ठीक है और क्या गलत है उसका ज्ञान हीं नहीं है? और यदि तुम्हें यह ज्ञान हो जाए तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाती हैं क्योंकि ज्ञान विज्ञान और अज्ञान अपूर्ण है। मानव जिससे पूर्ण होता है वह ब्रह्मज्ञान हैं। ब्रह्म का मतलब है ब्रह्म जैसा जीवन जीना जो इन तीनो से परें है। उसकी अनुभूति भर जाओ उसके लिए केवल आज और अभी में है जो किया जा सकता है वह इसी पल में होगा इसके लिए अलग से समय कभी नहीं मिलने वाला है। करना कुछ भी नहीं है सब कुछ जो भी कार्य उसके होने दो, उसमें स्वयं केवल द्रष्टा की तरह तटस्थ रखना है। मौन और शान्त हो जाओ चिन्ता करने का कोई प्रश्न नहीं है सारी चिन्तायें स्वतः अदृश्य हो जाएगी यह साइकोलाजिकल साइन्स है। इस क्षण में आने से तुम इस क्षण का भरपूर आनन्द ले पाओगें जो अद्वितीय होगा। यह जानकर तुमको आश्चर्य होगा की सव कुछ तो तुम्हारें पास था तुम ही अनुपस्थित थे ऐसा ही सभी प्रबुद्ध पुरुषों ने जाना है। तुम और तुम्हारी समृद्धि तुम्हारें साथ हर पल रहती है उससे तुमको दुनीया की कोई ताकत अलग नहीं सकती है। मगर तुम हमेंशा से बिते हुए कल में जीने के आदि हो जिसके कारण जीवन में कुछ भी तरो-ताजा नया नवेला ओश की बुदं की भांति नहीं दिखता है सब तरफ से सड़ान्ध ही दिखाई देता है। उसे कितना ही सजाओं सवारों वह आंख को और इन्द्रिययों को मात्र धोखा को धोखा ही दे सकते है। मगर उसमें सजीवता नहीं पैदा कर सकते है। मैं चाहता हूं कि लोग यह समझे अपने अस्तित्व को को और उसकी भाषा को जीवन अभी और अभी में ही उसका आनान्द है उसके आगोस में तत्त्क्षण है। उसके लिए किसी विज्ञान या गणीत की आवश्यकता नहीं है, जरूरत है तो सिर्फ जागने कि और जो इस पल में जाग गया वह शरीर नहीं रहा वह शरीर का स्वामी हो गया और जो स्वामी है उसको तनाव कहां होता है। तनाव तो दास को होता है।
  यस्मिन्सवार्णि भूतान्यात्मेंवाभूद्विजानतः।  तत्र को मोहः कऋ शोक एकत्वमनुपश्यतः।
   जैसा कि यह मन्त्र कह रहा है जो स्वयं को जानते है उसको यह लगता है। सब कुछ तो उसके पास है उसको किस वस्तु कि चिन्ता, तनाव, शोक मोह हो सकता है वह देखने से मूक्त हो जाता है।
   यह तो निर्विचार, निर्विकल्प, निर्बिज समाधि कि अनुभूति का प्रथम पल है। जिसकी यात्रा पर प्रत्येक पथिक को चलाना जो स्वयं को पाना चाहते हैं जो परम सत्य या कल्याण मार्ग का पथिक बनना चाहते है। उनके लिए ही झेनों में एक प्रसिद्ध कहानी कहते है। सबको चोरी करने की कला सीखना चाहिए। जापान में एक बहुत ही प्रसिद्ध चोर था वह इतना ज्यादा प्रसिद्ध था। जिस प्रकार से भारत में सबसे अच्छे महा पुरुषों को सम्मान प्राप्त है। जिस प्रकार भारत में राम जैसे महापुरुषों को पुजा जाता है, और पश्चिम में नोबेल प्राप्त वैज्ञानिकों सम्मान मिलता है और पुजा जाता है।
   उस चोर के अन्दर एक कला थी वब चोरी करता था लेकिन वह अपने जीवन में पकड़ा नहीं गया अर्थात सरकारी मुरजीम नहीं बना वह महापुरुषों में अग्रणी है वह बड़ी सफाई से अपना कार्य करता था। वह चोर अपना कार्य इस तरह से करता था जैसे वह प्रभु की ध्यान, प्रार्थना, साधना, समाधि सिद्धि के लिए उपासना कर रहा हो। यहां तक उसको वहां के राजा के द्वारा सबसे श्रेष्ट पुरष्कार उस देश का उसको दिया गया था। जिस प्रकार से भारत में सबसे अच्छे उच्य महापुरुष जो सज्जन के प्रकृत के है उनको पुरष्कार में भारत रत्न, पद्म श्री, पद्म भुषण दिया जाता है। इसी प्रकार से उस चोर को भी पुरष्कृत किया गया था। लेकिन आज लोग अपनी योग्यता से कहीं ज्यादा पाते है और बाद में उसका दुर्पयोग करते उसको पाने में ही उनका जीवन उनके लिए पूर्रणतः सोख लिया जाता है जैसे कपड़े में से पानी को निचोण लेते है। कपड़ा सुख कर कड़ा हो जाता है। सुखने का मतलब है उसमें से तरलता नष्ट हो जाती है। लेकिन उस चोर की प्रकृत बहुत अलग थी, और यह बहुत प्रसिद्ध जापान के रहस्यदर्शि का क्लासिकल सिद्ध योग का दृष्टान्त है।  जब वह चोर 80 साल का बृद्ध हो गया। उस समय केवल उसका एक युवा लड़का था। उसने एक दिन अपने पिता से कहा अब आपकी उम्र बहुत हो गई है मरने से पहले आप अपनी कला को मुझको भी सीखा दे क्योंकि वह चोर बहुत श्रेष्ट चोरों का गुरू भी था। उसके पिता ने उससे कहा यह तो बहुत कठीन कार्य है यह तो ऐसा ही है जैसे ध्यान में उतरना हो और यह सबके लिए कहां सुलभ है। उसके बेटे ने उसकी कोई बात नहीं मानी जैसा कि बेटे बाप की बात कहा मानते है जिसे ऐसा लगता है की उसका बेटा उसकी बात मान रहा है तो यह उसके लिए सबसे बड़ा भ्रम है। क्योंकि इस जगत में ना ही ऐसे बेटे है ना ही ऐसे बाप ही है। यह एक रहस्यदर्शि है इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है वह अपने आप में अतुलनीय है। अन्त में उसने जब देखा की उसका लड़का उसकी बात नहीं मान रहा है तब उसने कहा ठीक है तुम आज रात मेंरे साथ चलना। रीत्री के समय उस चोर के साथ उसका बेटा भी हो लिया जब वह एक बड़े घर के पास पहुंचा तब वह चोर वहीं पर रुक गया, और अपना औजार निकाल कर उस मकान की निव खोंदने लगा। वह निव खोदने का कार्य ऐसे कर रहा था जैसे वह अपने घर में कार्य कर रहा हो। उसका लड़का उसके पास ही खड़ा हो कर थर-थर कापं रहा था उसके पसिने छुट रहें थे। वह बार-बार चारों तरफ घुम-घुम कर देख रहा था उसको भय सताए जा रहा था की उसको चोरी करते कोई पकड़ सकता है। उसका पिता उस समय अपने निव खोदने के कार्य में ऐसे तल्लीन था जैसे वह ध्यान में हो चारों तरफ से बेखबर था। नीव में जब सुराख हो गया तो वह मकान के अन्दर घुस गया और अपने बेटे को भी मकान के अन्दर बुला लिया। जब उसका पूत्र मकान के अन्दर पहुच गया तब उसके पिता ने अपनी जेब से चाभी का एक बड़ा गुच्छा निकाला कर घर में जो एक बड़ी आलमारी थी उसके ताले को खोल कर अपने बेटे से कहा जाओ आलमारी के अन्दर और देखो क्या-क्या बहुमूल्य अपने काम की जो भी बस्तु है उस को उसको निकाल कर ले कर आवों। जब उसका बेटा आलमारी के अन्दर गया तो बाहर से उसके पिता ने बाहर से आलमारी के दरवाजे को बन्द कर दिया, और जिस निंव को खोद कर मकान में प्रवेस किया था उसी मार्ग से वह निकल कर बाहर आकर अपने घर का रास्ता पकड़ा। उधर उसका बेटा आलमारी के अन्दर फंस गया और अपने बाप को बुहुत कोसने लगा कि इस मुर्ख ने यह मुझको कहां पर लाकर फंसा दिया? उसका दिमांग बिल्कुल शून्य हो गया उसको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह अब क्या करें? जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की  थी वह उसके साथ हो रहा था। आलमारी के अन्दर उसको काफि देर गुजर गया लेकिन कोई नहीं आया उसको भय सताने लगा की थोड़े साय में ही सुबह होने वाली है और उस समय यदि किसी के हाथ वह लग गया तो उसके जिवन के लिए बड़ी समस्या उपस्थित हो जायेगी। जो भी कार्य यहां से निकलने के लिए किया जा सकता है किया जा सकता वह अभी रात्री में ही उसे अभी करना होगा अन्यथा बहुत देर हो जायेगी। यह विचार करके उसने आलमारी के अन्दर से आलमारी को इस तरह से खुरचने लगा जैसे कोई चुहा या बिल्ली आलमारी में फंस गई है। खुरचने की आवाज को सुन उस घर की नौकरानी जाग गई और उसने विचार किया जरुर कोई बिल्ली आलमारी के अन्दर फंस गई है इसलिए उसने एक हाथ में चाभी का गुच्छा लिया और दूसरें हाथ में उसने एक दिपक लेकर वह आलमारी के पास आई और उसको खोलने लगी जैसे ही आलमारी खुली उस चोर के बेटे तुरन्त दिपक पर फुंक मार कर उसको बुझा दिया और उस औरत को धक्का देकर एक तरफ ढकलते हुए जिस मार्ग से मकान के अन्दर आया था उसी रास्ते से वह बाहर की तरफ अपने पैर को अपने सर पर रख कर वहां से भागा। जब उस नौकरानी ने चोर को देखा तो उसके तो हास उड़ गए उसने किसी तरह स्वयं को जल्दी से संतुलित किया और चिल्लाने लगी चोर-चोर उसकी आवाज को सुन कर उस घर के सभी सदस्य उठ खड़े हुए और पड़ोसी भी जाग गये और पूछा कहां है चोर नौकरानी तुरन्त उस सुराग को दिखाया जिससे वह बाहर की तरफ भागा था। सभी लोग उस चोर के बेटे के पिछे लग गये उसको पकड़ने के लिए चिल्लाते हुए पकड़ों मारों। चोर का लड़का तो ऐसे भाग रहा था जैसे नदी समन्दर की तरफ बरीष के दिनों में भागती है। तुफान के समय में जैसे धुल के कण हवा के साथ भागते है। जब उसने देखा की इस तरह से इन सब लोगों से स्वयं की जान को बचाना बहुत दुर्गम कठीन होगा। तभी उसकी निगाह रास्ते में एक कुए पर पड़ी जिसके पास ही एक बड़ा पत्थर पड़ा था उसने तुरन्त पलक झपकते ही उस पत्थर के टुकड़े को उठा कर अपनी पूरी ताकत के साथ जोर से कुए में फेंक  पत्थर के कुए में गीरते ही बहुत तेज आवाज हुई जो लोग उस चोर पिछे उसको पकड़ने के लिए भाग रहे थे जब तक वह सब कुए के पास पहुचे उससे पहले ही वह चोर का लड़का स्वयं को कुए पास के ही झाड़ीयों में छुपा लिया और लोगों ने समझा की वह चोर कुएं में कुद गया है सभी लोगों ने उस कुए को चारों तरफ से घेर लिया और चोर को कुएं में से निकालने का विचार करने लगें।
   जबकी चोर का लड़का उन झाड़ीयों से निकल कर पिछे के मार्ग से अपने घर पहुचा तो क्या देखता है? उसका पिता अपने मुंह पर कम्बल डाल कर खर्राटे मार-मार कर आराम सो रहा है। उसने अपने पिता के मुंह से कम्बल को खीचा और पूछने लगा की तुमने क्या किया? मुझको फंसा कर चले आए और यहां आराम से सो रहें हो, वहां मेरी जान पर मुसिबत आ पड़ी थी। उसके पिता ने उघते हुए कहा तो तुम आ गए चलो अब सो जाओ सुबह इसके बारें में बात करेंगे। इसके बाद पुनः मुंह पर कम्बल डाल कर सोने लगा। उसके बेटे ने कहा यह क्या कर रहें हो तुम मुझे बताओ वहां मुझको छोड़ कर क्यों चले आए नहीं तो मैं सो नहीं पाउगा? उसके पिता ने कहा यह कार्य रोज नया होता है और रोज नया घर नयी अवस्था में जाते हैं इस कार्य में पूराना किसी प्रकार कोई अनुभव काम नहीं आता है वह भले ही मेंरा ही अनुभव क्यों ना हो? यहां तो स्वयं का निजी ज्ञान और अनुभव ही काम आता है। जो तुम ने कर लिया है अब तुम पक्के चोर बन गए हो कल से तुम अकेले ही चोरी करने के लिए जा सकते हो। होगा भी क्यों नहीं तुम मेरें बेटे हो और तुम्हारें अन्दर मेरा खुन है मेरा सारा गुण तुम्हारें अन्दर होना ही था। सुफी झेन कहते है कि जिस प्रकार चोरी करने में किसी प्रकार का पुराना अनुभव काम नहीं आता है क्योंकि रोज नए घर में और नई परीस्थिति जाना पड़ता है। उसी प्रकार से सत्य की जिसको प्यास है उसके लिए भी सब कुच हर पल नया होता है। वहां पर किसी दूसरें का अनुभव कभी भी स्वयं के काम नहीं आता है।
 अहम् इन्द्रं न शरीरम् अर्थात हम शरीर नहीं इसके स्वामी है। जिसके पास सिर्फ शरीर है भले ही वह स्त्री या पुरुष वह अपूर्ण और अन्धे के समान है, और जिसके पास आखें हैं वह कोइ स्त्री हो या पुरुष हो वहीं इन्द्र, वहीं स्वामी, वही राजा है। स्त्री पुरुष जहां पूर्ण होते है जहां पर एक दूसरें में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। शिव लिंग है जो किसी योनी प्रधान नहीं है। शिवलिंग तो मात्र एक प्रतिकात्मक है। वह मात्र संकेत के लिए है जो अन्धे की तरह अपने जीवन को जी रहें हैं। जिनकी अन्तरदृष्टि किसी कारण बस कार्य सही तरीके से नहीं कर रही है। वह शिवलिंग को देख कर समझ सके की वास्तवीकता क्या है? जैसा की प्रतिक को प्रस्तुत किया गया है आज भी दुनिया के किसी कोने में देख सकते है। किसी ना किसी रूप से प्रेरणा देने के लिए ही स्त्री और पुरुष के लिंग को आपस में एक साथ संभोग के समय की घटना को मन्दिरों में दर्साया या स्थापित किया गया है और वह पुजा और ध्यान के योग्य है ऐसा लोग आज भी करते है। वह सब मात्र प्रतिक और अलंकार से सुसज्जीत किया गया है उसके पिछे एक दूसरा ही रहस्य छुपा है। मानव शरीर सबसे महत्त्वपूर्ण संबेदनशील बहुमूल्य सबसे अधीक आकर्षण पूर्ण है। वास्तवीकता तो यह की हम सब को अपने लिंग को ध्यान के माध्यम से जानना चाहिए। लिंग का अर्थ है जाती से और इस पृथ्वी पर केवल एक जाती है जिसे मानव कहते है। जैसा की तुलसी दास कहते है कि लिंग थापी बिधीवत करी पुजा। शिव समान शिव मोही न दूजा।। अर्थात लिंग को स्थापीत करके ध्यानस्थ हो करों पुजा। अर्थात स्वयं को भली प्रकार से जानो उसके समान कोई नहीं है। जो मन से आत्मा को छुड़ाने वाला है इसको ब्रह्मचर्य से जोड़ा गया है शिव का मतलब है जो सबका कल्याण करने वाला है। जननेन्द्रियों को भी कहते है इसका मतलब है जिससे सभी जीव को जन्म लेने का सुअवसर मिलता है।
   जैसा की न्याय दर्शन कार गौतम कहते है इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःख-ज्ञानान्यात्मनो लिग्ड़म्।। अर्थात इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख का जिसको ज्ञान होता है वही लिंग मती आत्मा है। भ्रम होना स्वाभाविक है। क्योंकि लिंग से काम संभोग इस ब्रह्माण्ड की सबसे श्रेष्ट अद्भुत अद्वितीय और दिव्य घटना है जिसको सबसे अधीक बदनाम और कुरूप कर दिया है। इस पृथ्वी पर संभोग और समाधि दोनो एक दूसरें के पूरक है। मानव का मुंह बहुत सुन्दर है जिसको सभी बहुत पसन्द करते हैं । पैर जो कुरूप समझा जाता है वह जितना आकर्षण नहीं है। उसे कम पसन्द करते है। लेकिन मानव शरीर के पूर्णता के लिए परम आवश्यक है। ऐसा ही स्थान सब के जीवन में संभोग का भी है। संभोग के द्वारा ही प्रत्येक मानव का जन्म हुआ है। और जिससे स्वयं की उत्पत्ती हो रही है उसी को हम सब बुरा कुरूप और गलत कहते है। इसको मानव जीवन से यदि किसी तरह से अलग कर दिया जाये तो मानव किस स्थिती को उपलब्ध करेंगा उसकी कल्पना भी हम सब नहीं कर सकते है। क्योंकि संभोग किसी प्रकार से यज्ञ से कम नहीं है। इसके लिए आवश्यक है जो ऋषि कह रहें है भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा।।  अर्थात हम सब यज्ञ भाव से जिससे सभी जीव जन्तु का कल्याण होता है सभी प्रणीयों का कल्याण हो। ऐसे दृश्यों को कभी ना देखें जिससे किसी का अकल्याण हमारी दृष्टि में ना आये।
   जब तक इसको नहीं समझेगें तब तक शिव जो सबका कल्याण करने वाला है उसको समझना मुस्किल ही नहीं नामुमकिन है। क्योंकि लिंग ही वह मुख्य आधार है जिससे शिवलिंग का जन्म होता है। जब लिंग समझ में आ गया तो शिव स्वतः समझ में आ जायेंगा। जैसा की स्वामी दयानन्द ने समझा उनको जो पहली झलक सच्चे शिव को प्राप्त करने की इच्छा शिवलिंग की मुर्ति को देख कर ही मिली उन्होंने देखा की यह तो मात्र प्रतिक है। सच्चा शिव तो प्रत्येक कण में व्याप्त है उसके लिए किसी बिषेश मुर्ति की पुजा करने की बात कहीं भी नहीं की गई है। वहां तो ध्यान करने की बात हो रही है, और वह सब इस लिए है कि ब्रह्मचर्य को समझा जा सके इस लिए ही स्वामी दयानन्द ब्रह्मचर्य के एक महान उपासक थे, और उनका ही नहीं सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ब्रह्मचर्य पर बहुत जोर दिया गया है यह कहा जाए तो गलत नहीं की सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य आधार भुत सिद्धान्त ब्रह्मचर्य की नीव पर ही खड़ा है। ब्रह्मचर्य तो रूपान्तरण की मुख्य किमीयां या विज्ञान है। इस विज्ञान को जिसने भी समझा वह स्वयं को सच्चे शिव का साक्षात्कार करके सदा-सदा की प्यास जो भौतिक किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेने पर भी बुझती वह भी बुझ जाती है। वह इस मृगतृष्णा से स्वयं को तृप्त और परम आनन्द को प्राप्त कर लिया है।
   जो अन्धे है उनकी आखें ठीक की जा सकती सकती है। आखों के ठीक होते ही प्रकाश का प्रमाण मिल जाता है। लेकिन यह भौतिक आखों से नहीं देख सकते हैं। जिसको शिव का शिव नेत्र कहते है। उस नेत्र की जो बिधी है उसका यदि सही उपयोग करेंगे तो उसमें सक की कोई गुन्जाईस नहीं है जिसे कृष्ण परम ज्ञान या परम बचन कहते है उसकी अनुभूति नहीं कर सकते है, और यह शिव नेत्र हम सभी में है। आवश्यक्ता है मात्र उस आख को खोलने का और उसे खोलने की जो तकनिकी है उसे ध्यान कहते है। कृष्ण जिसे परम बचन कहते है वह सब परम बचन उन्होंने वेदों से लिए है। क्योंकि जो भी इस पृथ्वी आज तक उस संम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का श्रोत वेद ही है और आगे भी जो भी जाना जायेगा वह भी वेदों के अन्तरगत होगा। वेदों को एक अर्थ में आत्मा, ज्ञान, ब्रह्मचर्य, ऋत, और शिव को भी कहते है। क्योंकि आध्यात्म का अर्थ ही होता है अध्याय को आत्मा से जोड़ दिया है। अर्थात आध्यात्म आत्मा का पाठ आत्मा का ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान और ब्रह्मज्ञान का प्रारम्भ आत्मा से ही होता है। क्योंकि बिना आत्मा के शरीर मिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। कृष्ण उसी के आधार पर बोलते है इस तरह से जो वेदों में है वह सब परम बचन है जिसे ना ही सत्य ही कह सकते है ना ही उनको असत्य ही कह सकते है। परम बचन इन दोनों के मध्य में है जिसे आत्मज्ञानी महापुरुष ऋत कहते है जो शास्वत और रहस्यपूर्ण है उसमें एक यह भी है की मानव सिर्फ शरीर नहीं है। इसके स्वामी इन्द्र राजा है।
   मानव मन का शिकार हो गया वह अपने मन का दास बन गया और स्वयं को शरीर समझने की बहुत बड़ी बिमारी या महामारी का जो प्रकोप है उससे ग्रसित हो गया है।
   इसका केवल इलाज है अन्तर्यामी  के पास है। धर्म वह है जिसको अन्तर्यामी धारण करता है धर्म ही के पास एक मात्र समाधान है उनकी जो मानव में हजारों प्रकार की बिमारी हैं जिसमें से एक भयंकर बिमारी उब भी है उब सदा के सदा के लिए समाप्त हो सकती है या युं कहे की खत्म होने की भरपूर सम्भावना भी है। किसी ने आज तक सिद्ध पुरुषों के चेहरें पर किसी तरह की सिकन या संसार और उसकी प्रत्येक वस्तु से किसी प्रकार का द्वन्द बिरोध अन्तर्द्वन्द पिड़ा की शिकायत नहीं देखी है। लेकिन आज समय बदल गया है ऐसा लोग कहते है। वह जो मानव चेतना के बारें में नहीं जानते है कि चेतना कभी भी नहीं बदलती है। यहां इस जगत में एक अलग स्थिति पैदा हो रही है। जो कभी निराश, हराश, उदास किसी प्रकार का डेपरेसन का शिकार नहीं हुआ वह आदमी कैसा होगा क्या हम सब उसकी कल्पना कर सकते है, क्योंकि आज के समय में इस पृथ्वी पर स्वस्थ्य मानव को तलासना बहुत जोखीम भरा कठीन कार्य है उसकी सम्भावना कम ही हैं। जैसा कि हमने पहले ही विचार कीया था की दुःख मुख्यतः तीन तरह के होते है शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक तो इस सम्पूर्रण जगत में ऐसे बहुत है जो कहेंगे की मैं पूर्णरूप से स्वस्थ्य हूं। जो ऐसा कहते है वह शरीर से स्वस्थ्य है जिनमें मानसीक बिमारी की मात्रा सबसे अधीक है। दैविक और आध्यात्मिक परेसानि से लग-भग सभी लोग ग्रसित या पिड़ीत है। जो सिद्ध पुरुष होते है वह हमेंशा प्रफुल्लीत और तरोताजा आनन्दित उत्साहित रहते है। क्योंकि उनके जीवन में ध्यान की महत्त्व पूर्रण भुमिका होती है जो उन सभी को और उनके चेहरें को मुर्झाने नहीं देती है ध्यान का कार्य यही है  कि जो भी पूराना है उसे खत्म कर देता है वह मानव अस्तित्व को रेफ्रेस करने का कार्य करता है।                                                  
   जीवन से अद्वितीय और भी कोई वस्तु हो सकती है इसकी कल्पना भी फी करना असम्भव है, और यह भी बात है की जीवन से निकृष्ट भी कोइ वस्तु इस भुमंण्डल पर नहीं हैं। हम किसी भी विषय पर विचार दो प्रकार से कर सकते है। एक पक्ष ज्ञान का प्रकाश का जीवन का पाजटीव बिधायक दृष्टि है। दूसरा अज्ञान अन्धकार नकारात्मक जीवन का पक्ष है। एक तीसरा पक्ष भी है जिसके पक्ष में ऋषि, महर्षि, ब्रह्मज्ञानी, साधु, सन्त फकीर, योगी और सद्गुरु खड़े है। इस बात को समझ ले की यह सब केवल शरीर का प्रतिनिधित्व नहीं करते है यदि वह शरीर या आत्मा का प्रतिनिधित्व करतें है तो यह जान लेना की वह गुढ़ ज्ञान की दुनिया के अनुपम सम्राट नहीं बन पायें हैं। वह भी संसारी से कुछ अधीक नहीं है। जो यह तीसरा पक्ष है वही इस पृथ्वी पर सबसे बहुमूल्य अन्यथा सब कुछ कौड़ीयों का समान है। यद्यपि ऋषि कह रहा है की यह शरीर भष्म होने वाली है अर्थात शरीर का अन्त होने वाला है। इसमें दो बातें है एक शरीर भष्म हो रही है और दूसरी बात है शरीर का अन्त होने वाला है। इसमें तुम सब कहोगे की नया क्या है दोनो का अर्थ एक समान है जबकी वेद का मंत्र ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा है। वेद तीसरी बात की तरफ संकेत कर रहे है। जो इसमें अनन्त निरन्तर यात्रा कर रहा है। द्रष्टा जो देखने वाला है ऋषि कहना चाहते हैं की साक्षी भाव को जागृत करने के लिए क्योंकि आगे मंत्र कह रहा है कृतम स्मरः अपने किये हुए कर्मों को देखो उनका निरीक्षण करों अथवा स्मरण करों। अब सवाल उठता है कि यह आत्मनिरीक्षण का कार्य कौन करेगा? जो भष्म हो रहा वह है या जो अन्त की तरफ निरन्तर एक-एक कदम बढ़ रहा है वह। या जो इस कृया को द्रष्टा बन कर जो देख रहा है। जो भष्म ही हो रहा है यह भष्म होने की कृया आन्तरीक घट रही है जिस प्रकार से दीपक का तेल खत्म हो रहा हो और दीपक में तेल खत्म होते ही वह बुझ जाएगा। उसी प्रकार से इस शरीर में भी जो प्राण उर्जा है समाप्त भष्म कोयले की तरह से राख हो रही हैं।  इसलिए ही ऋषियों ने प्रणायाम जैसी बिधीयों का आविस्कार सृजन किया है। प्रणायाम क्या है? इसका उत्तर पतञ्जली दे रहें है। तस्मिन् सति श्वास प्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्रणायामः।। जो हमारी शांसे चल रही हैं श्वांस प्रश्वांस को उसको उसी स्थान पर रोक देने का या उस पर अपना नियंत्रण करलेना ही प्रणायाम है। हम श्वांस में केवल आक्सिजन ही नहीं लेते है यद्यपि वह तो मात्र एक माध्यम की तरह से है उसके साथ हम सब प्राण उर्जा को ग्रहण करते है। अर्थात जिस तरह से हम सब रूपये को खुब बचा-बचा कर खर्च या व्यय करते है उसी तरह से प्रकार से एक योगी, ज्ञानी, ध्यानी  प्राण उर्जा को व्यय करते हैं। जिससे इस खत्म होने वाली प्राण उर्जा को जल्दी सामाप्त होने से बचाया जा सके।
  श्रोत्रमसि श्रोत्रं में दाः स्वाहा। प्रभो तू श्रोत्र असी है मुझे तू सुनने की शक्ति दे यह मैं सच्चे मन से कह रहा हूं जिससे विश्वआत्मा का कल्याण हो। जिस प्रकार से हम सब रूपये को व्यय करते हैं बचा-बचा कर उसी प्रकार से यह प्राण उर्जा भी उससे भी बहुत अधीक किमती है। जो निरन्तर अपने अन्रत की तरफ ही बढ़ रहा है वह कैसे आत्मा का निरीक्षण कर सकता है? और अन्त की तरफ यह शरीर ही बढ़ रही है। क्योंकि शरीर शाश्वत नहीं है यह शरीर मिट्टि के पुतले से ज्यादा नहीं लेकिन जो इस शरीर में रहने वाले को जानते है उनके लिए यह शरीर सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के समान है। आत्मा भी स्वयं का आत्म चिन्तन नहीं कर सकती है क्योंकि आत्मा तो स्वयं पूर्ण और परम आनन्द में है वह अपने बारें में क्या चिन्तन करेंगी? यह कार्य तो बुद्धि को करना है इसलिए ही संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान चाणक्य कहते बुद्धि यस्य बलमं तस्य, अर्रथात जहां पर बुद्धि है वहीं पर बल है। एक किनारें पर शरीर है और दूसरें किनारें पर आत्मा है लेकिन द्रष्टा साक्षी भाव इन दोनो के मध्य में है। इस लिए ही वेद कहते है कि मध्य में आ जाओ। जैसा की महात्मा बुद्ध कहते है मध्यमनिकाह् अर्थात ना सागर के इस तरफ जो शरीर की भांति है ना सागर के दूसरें किनारें पर ही जो आत्मा की तरह से है। इन दोनो किनारें पर नहीं ठहरना है क्योंकि यह दोनो किनारें खतरनाक है। यहां तो जो प्रिय है वह भी अपना शिकार बना लेता है और जो दूसरें किनारें पर अप्रिय है वह भी स्वयं की आत्मा को गुलाम बनाकर दुःख ही देते हैं। यहो इस जगत में ना ही कोई प्रिय है ना ही कोई अप्रिय ही है। हमें को समान रूप से देखने की दृटि को विकसीत करने की आवश्यक्ता है जो ऐसा करते है उनको ही समदर्शी कहते है। जैसा की महात्मा बुद्ध कहते है जो समान रूप से सबको देखता है। जिसको ज्यादा दुःख अपने शत्रु से होती है जो अप्रिय है। इसका मतलब यह है कि वह अपने मित्र से कही अधीक अपने शत्रु से जुड़ा है। क्योंकि नफरत का ही एक रूप उदासी बैराग्य है। अन्तर सिर्फ इतना है जो शत्रु को देखने वाला व्यक्ति है यदि वह बुद्धिमान है तो वह उससे स्वयं को उलझाने के बजाय वह अपनी शक्ति को अपने शत्रु से लड़ने के बजाय किसी दूसरें कार्रय को सम्पन्न करने में लगाता है। बैराग्य के लिए पतञ्जली कहते है। दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा बैराग्यम्।। जैसा की कहा गया है नादान दोस्त से कहीं समझदार दुस्मन अच्छा है।
    मुझे एक कहानी याद आरही है एक बार एक सम्राट अपने घोड़े से कहीं की यात्रा कर रहा था। उसने अचानक एक पेड़ के निचे एक आदमी को देखा जो अपना मुह खोल कर सो रहा था। क्योंकि कुछ लोगों की आदत होती है जो अपना मुह खोल कर सोते है। राजा ने जब देखा की उस आदमी के जो जंगल में अकेला एक बृक्ष के निचे उसकी छाया में सो रहा था और उसके मुंह में एक काला सांप घुस रहा था। राजा ने केवल उसकी पूंछ को ही देख पाया तब तक सांप उस आदमी के मुंह में अन्दर उसके पेट में चला गया। सम्राट क्या करें उसके लिए उसने अपना कोड़ा निकाला और उस सोये हुए आदमी पर बरषाना या उसको पीटना सुरु कर दिया। वह राहगीर जो बृक्ष के निचे सो रहा था वह जाग गया उसकी नीद खुल गई और यह देख कर उसको बहुत हैरानी हुआ की यह आदमी उसको क्यों मार रहा है। वह बुरी तरह से चिल्ला कर कहने लगा आप मुझे क्यों मार रहे है। मैंने आपका क्या बिगाड़ा है और तरह-तरह से उसकी विनती और उसकी प्रर्थना करने लगा। वह राजा बहुत शक्तिशाली मजबुत और उस राह गीर से काफी युवा भी था।  उसने उस आदमी की एक नहीं सुनी। उसे बुरी तरह से पिटता रहा और उस राहगीर को मजबुर किया की वह उस बृक्ष के कच्चे सुखे सड़े-गले फल जो जमिन पर गीरे थे उसको खाये वह आदमी तो खाना नहीं चाहता था मगर जबरजस्ती उसको राजा ने तब तक मारा कर खिलाया जब तक की उसके पेट में गये सांप को उसने उल्टी नहीं कर दिया। जब सांप बाहर आ गया तो उसको देख कर वह आदमी तो आश्चर्य चकीत हुआ और वह राजा के चरणों को अहो भाग्य से भर कर पकण लिया। उस राहगीर ने राजा से कहा की आपने मुझको पहले क्यों नहीं बताया की मैंने सांप को निगल लिया है। राजा ने कहा की तुम नहीं जानते यदि मैं तुमसे कहता की तुमने सांप को निगल गए हो तो यह सुन कर ही तुम बेहोस हो जाते, इस दिशा में तुम्हारी मृत्यु भी हो सकती थी और उस दसा में तुम्हारें पेट से सांप को निकालना असंभव हो जाता। मेरें मारने से तुम्हारी मृत्यु नहीं हो गई है। मेंरा उदे्श्य भी यही था कि किसी तरह से तुम्हारी जान को बचाया जाये। यदि यह कार्य मैं तुमको पहले से बता कर करता तो ऐसा संभव नहीं था।
   यहां पर जो दुश्मन की तरह से दिखाई दे रहा है वह एक समझदार शत्रु है जो उस आदमी का सच्चा शुभ चिन्तक और परम मित्र था जिसने उसकी जान को बचा लिया। जैसा की कबीर कहते है कि निन्दक नियरें राखीये आंगन कुटी छवाय। बिन साबुन पानी बिना निर्मल करें स्वभाव।। अर्थात जो शत्रु की तरह दिखाई पड़ते है जो तुम्हारी निन्दा चुगली तुम्हें कष्ट देते है वह तुम्हारें जीवन में जो बिकार गन्दगी है उसको साफ करने का एक अवसर उत्पन्न करते है की अपनी गल्तीयों को सुधार लो बिना साबुन पानी के अर्थात बिना किसी खर्च या परीश्रम के ही।
   इसी को बैराग्य या त्याग तपस्या कह सकते है और जो बुद्धि हिन है वह किसी रास्ते को तलासने के बजाय वह अपने शत्रु को सुधारने का प्रयास करने लगता है और किसी शत्रु को सुधारना कठीन ही नहीं असंभव है क्योंकि सुधार बाहर से नहीं होता है इसका अपना एक दूसरा ही पहलु है। जो मीत्र है उसे कम जानते है जिस दिन तुम अपने मीत्र को को गहराई से देख लोगें उस दिन उससे भी तुम दूर जाने लगोगे यह निश्चित है।  मित्रतता के साथ शत्रुतता भी आती है। मित्रतता तो मात्र लिफाफे की तरह है जिसके अन्दर शत्रुतता ही आ रही है। इसका ज्ञान काफी समय के बाद होता जब प्रायश्चित करने का भी समय नहीं बचता है।  इस लिए ही योग दर्शनकार पतञ्जली कहते है सुखा नुशई रागः। अर्थात जिसमें सुख की अनुभूती होती है वह राग है जिसका अर्थ है किसी के आश्रीत हो कर जीवन को जीना राग तुम्हें स्वतन्त्र करने का बजाय वह सबसे अधीक परतन्त्र करता है। राग के कारण ही तो इस दुनिया में मोह मत्सर और अपना पराया है। दुःखा नुशई द्वेषः और जिसमें दुःख की अनुभूति वहीं द्वेष है। यह दोनो बहुत खतरनाक है। मानव अस्तित्व के लिए जो स्वयं को जानना चहते है स्वयं की प्राप्ती में सबसे बड़ी रुकावट है।
   एक बार एक बहुत बड़े आश्रम के कुछ विद्वान कई सालों के बाद अपने गुरु से मिलने के लिए गए। उनके गुरु ने सबसे पहले उन सब के लिए काफी के तैयारी में लग गया क्योंकि वह सब उसके बहुत पूराने शिष्य थे। इस लिए उसने स्वयं रसोंई घर में जा कर उनके लिए काफी को तैयार किया। जो शिष्य उससे मिलने के लिए आये थे उनमें एक ने कहा गुरुवर हम सब की एक बहुत बड़ी कठीनाई है एक ऐसा प्रश्न जिसका जबाब हम सब के पास नहीं है उसके उत्तर कि आकान्क्षा को ले कर के ही हम सब आपके सामने उपस्थित हुए हैं। जब काफी तैयार हो गई तो उसको गुरु ने बड़ी थालि में सारें कपों को रख कर जिसमें कुछ बहुत महंगे सुन्दर सोने चांदी हीरें मोतीयों से जड़ीत किमती थे तो कुछ बिल्कुल ही सस्ते किस्म के कांच, मिट्टि, लकड़ी और ताबें, पितल के कप थे। गुरु ने काफी से भरें कपों को सबके सामने लेने के लिए बढ़ाया। उन सब शिष्यों ने जो किमती और सुन्दर कप थे उन सभी को बारी-बारी से एक-एक कप थाली में से उठा लिया और जो सस्ते किस्म आकर्षण हिन कप थे उसको किसी ने भी थाली में से नहीं उठाया। इसके बाद एक दूसरें के कप को सभी देखने लगे सभी कप एक से बढ़कर एक बहुमूल्य और सुन्दर थे। उसी समय गुरु ने कहा एक क्षण रुक कर हम सब बिचार करते हैं तुम कह रहे हो की तुम सब के लिए कोई कठीन प्रश्न है। तो उन सब में से एक ने कहा की हमें यह नहीं समझ में आ रहा है हमारें जीवन तनाव और डेपरेसन क्यों है?
  गुरु ने कहा मैंने आप सब के सामने हर तरह के कपों को लाकर रखा और सब में काफी बराबर मात्रा में एक स्वाद वाली ही है। फिर भी तुम सबने काफी को भुल कर कप पर ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करके यह चाहते है कि जो किमती और अधीक सुन्दर कप थे उन सब को तुम सबने उठा लिया बजाय सस्ते और कम किमत के कपों को किसी ने भी नहीं लिया। यहीं हमारें सब के जीवन में भी हो रहा है। हम सब जो भी सुन्दर किमती आकर्षण वस्तु है उसको प्राप्त करने के लिए ही आपस मे संघर्षरत है और उसकी मात्रा बहुत ही कम है इस लिए ही एक दूसरें में संघर्ष, तनाव, फसाद, पिड़ा संताप और दुःख सब के जीवन में है। जो मुख्य जीवन है वह तो काफी के समान है और जो सारी पद प्रतिष्ठा घर, मकान, नौकरी, तमाम सामाजिक चिजें कप की भांति है। जो समझदार और ज्ञानी मानव है वह जीवन को देखता है क्योंकि जीवन का आनन्द उसी मे है और जो मुर्ख होते है वह जीवन को छोड़कर दूसरें तुच्छ्य पदार्थ जो कप की तरह से गौण हैं। उसी को पाने के लिए आपस में लड़ते है नहीं मिलने पर दुःखी और अकाल मृत्यु से ग्रसीत होते हैं। यही तुम सब के साथ भी हो रहा है। तुम सब के जीवन में पीड़ा है इसका कारण है की तुम सब जीवन को छोड़ कर शरीर को ही सब कुछ मान उसी के बिलास के लिए स्वयं के जीवन के समर्पित कर दिया है जिसके परीणाम स्वरूप तुम सब का जीवन तुम सब के पास सब कुछ होने के बजाय भी तुम्हारें जीवन में दुःख और हजारों प्रकार के क्लेशों से भर लिया है।
  यह आत्मा ना ही जन्म लेती है और ना ही मृत्यु को ही कभी उपलब्ध होती है। मृत्यु और जन्म शरीर के धर्म है आत्मा के नहीं। यह आत्मा किसी का कर्म नहीं है ना ही किसी का उत्पादन कारण है यह तो शाश्वत सनातन स्वतन्त्र सत्ता है। जो अजन्मा नित्य शुद्ध बुद्ध सदा से चली आ रही है शरीर के हिन्सीत होने से भी आत्मा नहीं मरता है। आत्रमा शाश्वत एक रस रहने वाली है। इस शरीर पर अघात करने से आत्मा शरीर से पृथक हो जाता है तो मारने वाला समझता है की मैनें मार दिया और मरने वाला समझता है की मैनें मार दिया जबकी वास्तवीकता इसके बिल्कुल बिपरीत है।              
    हमारें महापुरुषों ने यह सब काफी सदियों पहले यह सब समझ लिया था। इसीलिए इसका समाधान भी हम सब को दे दिया। अपनी पवीत्र साधना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया वेदों के द्वारा, आत्मा को भी एक अर्थ में वेद कहते है और जो सभी प्रकार का सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान है वह वेदों में ही विद्यमान है। अर्थात आत्मा में ज्ञान है जो शाश्वत है आत्मा की आवश्यक्ता और उसकी पुर्ति के लिए ही उसके पास एक प्रबल सेवक भी है जिसको मन के नाम से जानते है वह आत्मा का सेवक और उसकी सेवा के लिए है। जिसमें सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के जितने भी प्रकार के विषय और उससे संबन्धित जानकारी हैं वह सब संस्कार रूप से कई जन्मों का सब मन में ही विद्यमान है। जिसको जाग्रत करना होगा। अर्थात उस विषय में विशेष पुरषार्थ करना पड़ता है। उसको जानने समझने कि शक्ति जिसे मंत्र कहते है। एक अर्थ में मन को भी मंत्र कहते है। इसका तात्पर्य यह है कि मंत्र में जो सभी प्रकार के विषय है वह सब पहले ही मन में उपस्थित है मन को समझना ध्यान के माध्यम से मंत्रो को समझना एक समान है। मंत्रो के जरीए हम सब यह समझ सकते है कि विषय कितने प्रकार के है और उनसे मुक्त होने का मार्ग क्या है? उनका उपयोग करके स्वयं के जीवन को सम्पन्न कर सकते है या फिर इस तरह से कहे की मंत्रों मे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की थ्योरी विद्यमान है जिसका उपयोग करके हम सब अपनी बुद्धि के द्वारा यथा योग्य जीवन में से समूल समस्यायों को उसके जड़ समेत उखाड़ कर स्वयं का जो परम लक्ष्य समाधि है उसको उपलब्ध कर सकते है। दूरपयोंग अथवा सद्उपयोंग करना हमारी बुद्धि के उपर निर्भर करता है।
   'जिवा ज्योतिरशीमहि' ज्योतीयों के तुम ज्योंती हो प्रकाश पुन्ज परमात्मा हम सब में जो अज्ञान अन्धकार तम उसमें फस कर ही ना रह जाए यद्यपि स्वयं के जीवन को प्रकाशमय आनन्द की तरफ ले कर बढ़ते रहें और आप हम सब को ऐसा आशिर्वाद प्रदान करें।