अहम् इन्द्रं न शरीरंम्
द फ्राग्रेन्स आँफ मिस्ट्रियश एडीफिकेसन
प्रथम संसकरण
आचार्य मनोज
बिषय सूची
भुमिका
1 त्रैतवाद साक्षी ऋतं बदिष्यामि।।
2 शून्य की नाव भाव कि जिज्ञासा।।
3 अहम् इन्द्र न शरीरमं आत्मदर्शन।।
4 भष्मान्त शरीरं ज्ञान की पराकाष्ठा।।
5 ज्ञान ईश्वरों ज्ञेयो योनीः कारणमुच्यते।।
6 विज्ञानं यज्ञं तनुते, कर्मादि तनुतेऽपि च।।
7 अज्ञान युयोध्यस्यमज्जुहूराणमेनो।।
8 अन्तः प्रज्ञा यज्जोतिरन्तरमृतं प्रजासु।।
9 सुर्यआत्मा जगतस्तथुषश्च सर्वज्ञ।।
10 मनुर्भवः जनया छायाऽमृतं।।
11 कालो अश्वोवहति सप्तिरश्मिः।।
12 कामविपश्चितस्य चक्रा भुवनानि विश्वा।।
13 राम संसाररस्य मृत्युवाच्यब्रह्मोपासना।।
14 संभोगः समुद्र एवास्य बन्धुः समुद्रयोनि।।
15 मनुष्य ऋष्यश्चय समुद्रः परमात्मा।।
16 धर्म यज्ञयस्य ईदमिन्द्राय-ईदं न मम।।
17 ब्रह्मसाक्षात्कार अयं त ईध्म आत्मा।।
न में द्वेषरागौ न लोभो न मोहो मदो नैव मात्सर्य्यमान्।
न धर्मो न चार्थे न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।1।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मंत्रो न तीर्थो नवेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।2।।
न में मृत्युशंङका न में जातिभेदः पिता नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैंव शिष्य श्चिदानन्दरूपः शिवऽहं शिवऽहम्।।3।।
इसी प्रकार ऋगवेद में यज्ञ का अर्थ परम पुरुष करते हुए उस यज्ञ से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान और सृष्टि का प्रवर्तन मानते हुए कहा है, यज्ञेन यज्ञमयजन्तदेवाः, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त।। "ऋगवेद 10.6.16" दिव्यगुण युक्त महापुरुषों ने अपने जीवन से यज्ञ रूप परमात्मा का यज्ञ अर्थात पुजन किया। इससे सभी देव पुरुषों ने महिमामण्डीत होकर, सभी प्रकार के कष्टों से रहित ब्रह्मी स्थिति मोक्ष को उपलब्ध किया। उस यज्ञपुरुष के ही सृष्टि के आदि में बिस्तार के कारणभुत यह प्रथम धर्म थे। जिससे उस यज्ञरूप प्रभु ने सर्वहुत यज्ञ प्रारम्भ करके इस सृष्टियज्ञ का श्री गणेश किया, और उस सृष्टि को विविध विस्तार प्रदान किये गए। इन सब विविध विस्तार पूर्वक अवस्थाओं में वह यज्ञ विविध कहलाया, "इमंनो अग्न उपयज्ञमेही पंचयाम त्रिवृतं सप्ततन्तुम।" 'ऋगवेद 10,124.1' इस त्रिविध रूप यज्ञ के धातुगत देव पुजा, संगतिकरण और दान, तीनों अर्थ, प्रथम तीन आश्रम, प्रथम तीन वर्ण, प्रातः मध्यन्दिन और सायं तीन सवन, अग्निहोत्र में प्रयुक्त-तीन समिधा, घृत और हबीस्, तीन प्रमुख समिधायें आवहनीय, दक्षिण और गार्हपत्य-तीन अग्निया तीन आचमन और तीन पूर्णाहुतियां सम्लित हैं। इसी यज्ञरूप कर्मात्मा पुरुष ने आश्रमात्मा कर लोकात्मा और पिण्डात्मा के अनुकरण पर मानव समाज का निर्माण किया, और वहा पुष्ट वर्धनम वही पालन और विकास के लिए उत्तरदाई जिम्मेंदार हैं। उर्वारुकमिव यदि तुम उसको जानकर जिसका खरबुजे की तरह का स्वभाव है। उसी प्रकार से बंधा जिस प्रकार से खरबुजा अपनी बेल से बंधा रहता है। उसी प्रकार से जीवन भी खरबुजे रूपी शरीर से बंधा रहता है, और बेल के समान नस नाड़ीया है जिसमें खुन का संचार होता है। बेल का दूसरा अर्थ मृत्यु, मोक्ष का अर्थ ईश्वर भी करते है। तुम उसको जानकर उसमें स्वयं को स्थित कर के स्वयं को अमृत कर सकते हो यानी अमर शास्वत होने की बात हो रही है। इस पूरे मंत्र का अर्थ और विस्तार से समझते है। जो स्पष्ट है मूल तीन तत्त्व हैं। पहला तत्त्व लौकीक है जो प्राकृतिक प्रकृत से बना यह हम सब है शरीर का हैं। दूसरा जो कारण है बन्धन का वह जीव है और उसकी तीन प्रकार की तृष्णा। लोकएसणा, पुत्रएसणा, और जिजीवएसणा अर्थात जीने की तृष्णा है और तीसरा सबसे सुक्ष्म सब्टल ईश्वर है। प्रकृति या प्रोटान ही कारण है भौतिक परीवर्तन का अर्थात खरबुजे रूपी शरीर का उसके अन्दर जो सुक्ष्म तत्त्व है, मन यानी न्युट्रान जिसको बेल भी कहते है जो जोणने वाला माध्यम है। अन्त में तीसरा तत्त्व मूल बीज है इलेक्ट्रान जो खरबुजे के बीज में उर्जा के रूप में व्याप्त है। जिसे वैज्ञानिक विगवैंग कहते है यह बिस्फोट उर्जा में ही होता है। जैसा की वैज्ञानिक पहले मानते थे की यह सम्पूर्ण जगत और उसमें सब कुछ पदार्थ गत है और उसी से बना है। कालर्माक्स की तरह वह भी यही कहता था की सब कुछ पदार्थ गत है और सभी धर्म अफीम के नशे से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन अब बातें बदल रही है वैज्ञानिक अब कह रहें है की सब कुछ उर्जामय है और हम सब भी एक उर्जा के ही पुन्ज है। खरबुजे के उपर जो आवरण है वह प्रोटान से बना है और न्युट्रान आन्तरीक है यह तीनो मिल कर ही खरबुजे के मूल कारण है। इलेक्ट्रान जो बीज को तोण कर उसे अंकुरीत करने का मुख्य श्रोत है। यही बीगवैग थ्योरी का जन्मदाता है। यह जो क्रिया यहां पर ऋषि खरबुजे के अलंकारीक रूप में समझा रहे है जो बीज में घट रहा है वही क्रिया इस विशाल विश्व ब्रह्माण्ड में भी घट रहा है। ऐसा वैज्ञानिकों का भी मानना है। इससे यह स्पष्ट होता है जिस प्रकार की घटना खरबुजा के साथ घट रही है बिल्कुल वही घटना मनुष्य के साथ भी घट रही है। क्योंकि मनुष्य भी ब्रह्माण्ड कि ही एक कड़ी है या युं कहे मनुष्य लघु ब्रह्माण्ड छोटा सा पिण्ड है। जो विस्तृत रूप में ब्रह्माण्ड में है वही सुक्ष्म रूप से इस मानव शरीर में भी व्याप्त है। यही नहीं प्रत्येक प्राणी का शरीर चाहे वह कितना ही सुक्ष्म है। इसलिए मंत्र का द्रष्टा कह रहा है यदि तुम खरबुजे को समझ गये तो तुम्हें स्वयं को भी समझने में बहुत आसानी होंगी, और सरलता से स्वयं को समझ कर सम्पूर्ण संसार रूपी ब्रह्माण्डीय शरीर से मुक्त होकर मोक्ष के भागी बन सकते है। यह मंत्र ही नहीं वेद के सारें मंत्र अलंकार में बातें करते है। इसमें उदाहरण दे कर समझाया गया है कि सबसे सुक्ष्म ईश्वर है उससे थोड़ा कम जीव है, और जो सबसे स्थुल प्रकृत है। ईश्वर रूपी इलेक्ट्रन पूरे प्रकृत रूपी ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जैसा कि मंत्र कह रहा है, ईशा वास्य मिदं सर्वम्।। अर्थात ईश्वर प्रत्येक कड़ में व्याप्त मिला हुआ है। वैज्ञानिक भी यही कहते है कि इलेक्ट्रान प्रत्येक कड़ में सम्लित मिला हुआ है और इलेक्ट्रान के चारों तरफ प्रोट्रान और न्युट्रान भ्रमण करता है दोनों की दिशा एक दूसरे से बिपरीत है। प्रोट्रान और न्युट्रान इलेक्ट्रान के रक्षा कवच का कार्य करते है। इसको इस तरह से समझते है कि परमात्मा का रक्षा कवच जीवात्मा है और जीवात्मा का रक्षा कवच प्रकृत है। जब जीवात्मा ही नहीं होंगा तो परमात्मा का होना या ना होना कोई मायने नहीं रखता है। क्योंकि किसी को समझाने के लिए उसके दूसरें पहलु का होना परम आवश्यक है। द्रष्टा के लिए दृष्य का होना आवश्यक है प्रकाश इसलिए है क्योंकि अन्धकार की सत्ता है एक व्यक्ति जो जन्म से अंधा है उसको ना ही अन्धकार का ज्ञान है ना ही प्रकाश का ही ज्ञान है उसके लिए ऐसी स्थिती है जिसका वर्णन ऋगवेद 10.129.1-7 का नासदिय सुक्त करता है। नासदिय सुक्त जो कह रहा है उसको समझते है प्रलय अवस्था में ना ही सत्य था ना ही असत्य ही था, उस समय ना ही लोक था ना ही परलोक ही था ना अन्तरीक्ष ही था, उस समय सबको ढकने वाला क्या था, कहां किसके आश्रय में था, अगाध और गंम्भिर जल क्या था? यह सब अनिश्चित ही था। उस समय ना ही मृत्यु थी नाही अमृत ही था सुर्य चन्द्र के अभाव में रात दीन का भी ज्ञान नहीं था। उस समय वायु से रहित दशा में एक अकेला वही अपनी शक्ती से सांश बिना साशों के ले रहा था उससे परे या भिन्न कोई वस्तु नहीं थी। सृष्टि से पूर्व प्रलय दशा में अंधकार से आच्छादित था अज्ञात दशा में और यह सब कुछ जल ही जल था, जो कुछ था वह चारों ओर होने वाले सदविलक्षण भाव में डुबा हुआ था और वह सब मन के तप के प्रभाव से प्रलया अवस्था में चारों ओर अंधकार ही अंधकार था। अतः कुछ भी ज्ञान नहीं होता था और जो कुछ था वह सब आश्चर्यमय अजीबो-गरीब अद्भूत रहस्यपूर्ण था। उसमें सबसे पहले परमात्मा के मन में सृष्टि करने की इच्छा ने जन्म लिया। उसके बाद उस मन से ऋत बीज का कारण उत्पन्न हुआ फिर बुद्धिमानों ने अपनी बुद्धि द्वारा ऋषियों ने अपने हृदय में विचार कर बन्धन का कारण भुत विद्यमान वस्तु को अविद्यमान पाया, अर्थात सब दृश्यमय जगत का कारण असत् अदृश्य मय ब्रह्म को पाया। इस प्रकार बीज को धारण करने वाले पुरुष भोक्ता और महीलाए भोक्ता उत्पन्न फिर इन भोग्य की किरणें तीरछे, उपर, नीचे सब तरफ फैली इनमें भोग्य शक्ति निकृष्ट थी, और भोक्ता का एक जोड़ा हुआ और इन्हीं भोग्य और भोक्ता से सारी सृष्टि हुई। इसमें भोग्य शक्ति निकृष्ट होने के कारण वह भोक्ता के अधीन हो गई। कौन जानता है? कौन कहेगा की यह सृष्टि कहा से किस कारण से उतपन्न हुई। इसलिए यह सृष्टि जिससे हुई उसे कौन जानता है? यह सृष्टि जिससे पैदा हुई वह इसको धारण भी करता है या नहीं इसको आखीर जानता कौन है? इसलिए हे विद्वानों वही जानता है जो परम आकाश में होता हुआ उस सृष्टि का अध्यक्ष। अथवा वह भी नहीं जानता है। उतपत्ती से पूर्व यह संसार निगला हुआ अधंकार से आच्छादित था। यहां जिसकी बात हो रही है वह सब के अन्तरतम में विद्यमान है। सत्य को जानने वाले कहते है कि उन्होंने अपने हृदय में ध्यान के माध्यम से यह जाना की यह जो बाहरी दृश्यमय जगत है, इसका स्वामी अदृश्य रूप से हम सब में व्याप्त है और वहीं पर उसका साक्षात्कार किया गया है।
एक बार की बात है जापान में एक बोकुजी नाम का साधु था जो जापान में बहुत ज्यादा प्रसिद्ध ख्याती प्राप्त था। जापान में बहुत ज्यादा भुकम्प आता है। ऐसी ही एक घटना उसके जीवन में आती है। जो बहुत प्रसिद्ध है एक बार एक बड़े होटल के मालिक ने बोकुजी की प्रशन्शा प्रसिद्धि से प्रभावीत होकर अपने एक विशाल लकड़ी के होटल में नीमंत्रीत किया उसका होटल भी सबसे पूराना और पूरे जापान में बहुत प्रसिद्ध था। वह लकड़ी का सबसे उंचा और शानदार होटल था उसी में एक दिन शाम को अपने कुछ मित्रों और बोकुजी साथ एकत्रीत हुए। भोजन की टेबल पर उन सब ने यही विचार किया की भोजन भी होगा साथ में बोकुजी के सत्संग भी हो जाएगा। सबके लिए सुस्वादु भोजन को परोंसा गया और उसके लिए मालिक ने बोकुजी से पूछा तो आप बताइए की आप किस प्रकार का ज्ञान देते है? बोकुजी कहना प्रारम्भ करें, उससे पहले ही बहुत भयंकर भुकम्प आगया और वहां पर सारें लोग जो खाने के लिए लिए बोकुजी के साथ उपस्थित थे वह सब वहां से पलक झंपकते ही भाग खड़े हुए, और उस होटल का मालिक भी वहां से अपने पैर को सर पर रख कर भागा। लेकिन जब वह सिढ़ीयों पर पहुंचा तो उसे याद आया वह साधु जो उसका मेहमान था वह तो नहीं आया, वह वहीं पर क्यों बैठा रह गया, उसने विचार किया की उसको बुला लेते है। जब उस होटल का मालिक बोकुजी के पास पहुंचा तो वह देखता है कि बोकुजी तो आंख बन्द करके निश्चिन्त होकर बैठा है। उस समय होटल के मालिक ने कुछ नहीं बोला उसने अपने मन में सोचा की जब यह साधु यहां से भाग कर नहीं जा रहा है तो मैं भी कहीं नहीं जाउंगा। वह भी वही पर अपनी आंखे बन्द करके बोकुजी के पास ही बैठ गया। कुछ समय के बाद भुकम्प शान्त हो गया, क्योकि भुकम्प हमेंशा थोड़े ही रहता है। तब बोकुजी ने अपनी आंखों को खोला और उस होटल के मालिक से कहा की हां अब बताओ क्या बात हो रही थी वही से पुनः फिर से प्रारम्भ करते है। उस होटल के मालिक ने कहा बश रहने दे अब फिर कभी बाद में इसके बारें में बात करेंगे। क्योंकि वह आदमी भुकम्प के कारण से अन्दर तक हील गया था। लेकिन उसने देखा बोकुजी बिल्कुल उसी प्रकार से था जिस तरह से वह आया था जैसे कुछ हुआ ही नहीं है यह सब एक सामान्य साधारण सी घटना थी। जबकि भुकम्प ने काफि तबाही मचाई थी। होटल के मालिक ने बोकुजी से कहा मैं केवल एक प्रश्न के बारें में जानना चाहता हूं कि आप यहां पर ही क्यों बैठें रहे, जबकि और सारे व्यक्ति हमारें साथ बैठे थे वह यहां से भाग गए। मैं भी भाग गया था, लेकिन जब मुझे आपका ख्याल आया तो मैं वापस आगया, और जब मैंने आपको देखा तो मैं भी आपके साथ बैठ गया। बोकुजी ने कहा यह मत कहो की मैं नहीं भागा, मैं भी भागा था तुम्हारी तरह अन्तर सिर्फ इतना था कि तुम सब बाहर की तरफ भागे और मैं अपने अन्दर की तरफ भागा, क्योंकि मैं जानता था की बाहर कही भी भाग जाओ हर जगह भुकम्प ही भुकम्प है। यदि भुकम्प से बचना है तो वहां जाना चाहिए जहां भुकम्प नहीं है। वह अस्थान तो हम सब के अन्दर है, और मैं अपने अन्दर चला गया जहां कभी किसी प्रकार का भुकम्प आया ही नहीं करता है। जहां पर परम शान्ति और परमानन्द है। इस कहानी को कहने का तात्पर्य है यह है कि बाहरी जगत की जितनी भी समस्या है या परेशानी है उन सब का समाधान स्वयं के अन्दर जाने के बाद ही सबको मिलता है और आज भी सभी को मिलने की संभावना है। बाहर जाने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम प्रश्न को कुछ समय के ढकेल देते है जो प्रश्न स्वयं के जीवन से संबन्धीत उनको बाहर के प्रश्नों से हम कभी तृप्त नहीं कर सकते है। वह तो समाधि को जब उपलब्ध करता है तभी परम शान्ति को उपलब्ध होता है। तो कहने का मतलब है कि मन को जो भी थोड़ा सा भी समझा गया है क्योंकी वह हमेंशा दुबीधा कि स्थिती में रहता है और यह सिर्फ बाहरी जगत को ही समझता है। यह एक दूसरें पर निर्भर करते है वैज्ञानिक मानव को समझने का दावा करते है और प्रकृति को भी समझने को भी वह समझ रहे हैं। वह केवल इलेक्ट्रान रूपी ईश्वर को समझने में असमर्थ हैं। क्योंकि इलेक्ट्रान को तोड़ने में समर्थ है लैप्टान और कितने सुक्ष्म रूप में वह है उसको पूर्ण समझना अभी सम्भव नहीं हो पाया है, और वही सबके मूल में व्याप्त है। जो रहस्यपूर्ण चामत्कारीक है। जैसे शरीर और मन को तो काफी हद तक समझने का दम भरते है। मृत्यु और जीवन एक दूसरें के पुरक है और एक दूसरें पर निर्भर करते है। बस आत्मा ही एक रहस्य है जिसको वह ना ही समझ पाये है ना ही उस पर किसी प्रकार का प्रयोंग ही कर पाये हैं। मगर ऋषियों ने सारा प्रयोंग आत्मा पर कर के ही सभी प्रकार के ज्ञान, विज्ञान, और ब्रह्मज्ञान को जाना है। वह सब एक साथ ही रह कर एक दूसरें को पुष्ट कर रहें हैं। जो सबसे सुक्ष्म कण इलेक्ट्रान उसमें सबसे पहले एक बिस्फोट की घटना घटती है जिसे विगवैंग के नाम से जानते हैं और वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है। कुछ समय पहले वैज्ञानिकों ने एक प्रयोंग किया जिसे वह अब तक का सबसे बड़ा प्रयोंग कहते है। फ्रांस और स्विजरलैण्ड के मध्य जमिन के अन्दर किया गया। जिससे उनके सिद्धान्त को बल मिलता है कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति बिगवैंग जैसी घटना के कारण ही हुई है और इस बात को ऋग वेद का मंत्र भी सिद्ध करता है। हजारों वर्षों पहले ऋषियों ने यही बात कही है। सृष्टि में सबसे पहले एक आग्नेयपिण्ड पैदा हुआ, सवाल यह उठता है की आग्नेयपिण्ड कहां से पैदा हुआ? इसके उत्तर में वैज्ञानिक ऋषि कहते है की आग्नेयपिण्ड शून्य से उत्पन्न हुआ जो बिल्कुल भार रूप आकार परीणाम से भी शून्य था। शून्यता भी चार प्रकार की होती है। एक तो आकाश की शून्यता है जिसे वैज्ञानिक कहते है यदी पृथ्वी का सम्पूर्ण आकाश रीक्तता को किसी माध्यम से खीच लिया जाये तो यह पृथ्वी एक सेब के आकार की हो जाएगी। यह तो आकाश की शून्यता है। एक पदार्थ की शून्यता होती है, एक उर्जा की शून्यता होती है और एक चेतना की शून्यता होती है। वैज्ञानिक अभी तीन प्रकार की शून्यता से ही परीचित है। एक प्रकार की जो सबसे सुक्ष्म शून्यता है जिसकी बात पतञ्जली करते है, उसको नहीं जानते है। यह सब जगत उसी शून्यता से उत्पन्न हुआ, इस विषय पर वैज्ञानिक आज भी अनिश्चियता की स्थित में है। जबकी दर्शन कार पतञ्जली निसंदेह होकर बोल रहे है कि एक चेतना की भी शून्यता है। जैसा की सुत्र कहता है "तद् एवार्थ मात्रनिर्भासमं स्वरूपशून्यम् इव समाधिः" परमात्मा के चेतना की शून्यता से अग्नीपिण्ड उत्पन्न हुआ और प्रकास हो गया। इस आग्नेयपिण्ड होने बाद क्रमशः सारी सृष्टि उत्पन्न हुई, इस महान आग्नेयपिण्ड के सहयोग से पृथ्वी पर जल और औषधियां रमण करने लगी। ऋग वेद 10.80.2 आग्नेयपिण्ड यहां पर आटम या परमाणु के छोटे से कणों के कहा जारहा है। क्योंकि वैज्ञानिकों ने एक अणु को तोणा था सन 1945 में जो परमाणु बम जापान पर गीराया गया था। वह एक छोटो सा अणु ही था जिससे वैज्ञानिकों ने यह जाना की एक अणु में इतनी शक्ति सुक्ष्म से छुपी है जो चमत्कारीक और आश्चर्यमय उर्जा का श्रोत है, जो सम्पूर्ण पृथ्वी ही नहीं इस वयुमंडल को भौतिक रूप से एक बार नहीं हजारों बार समाप्त कर सकता है। उन्होंने इसका अन्दाज नहीं लगाया था कि इतने ज्यादा लोग मरेगें लाखों कि संख्या में लोग कुछ ही क्षण में भष्म हो गए, और वह एक बहुत छोटा सा प्रयोंग था उस बम का नाम लिटील ब्वाय अर्थात छोटा सा बच्चा दिया था। अब तो उसका दादें, परदादे को बनाया जा चुका है। जैसे परमाणु, हाइड्रोजन, न्युट्रान, बम जिसके अन्दर लगभग उतनी उर्जा को छोड़ने वाला है जितना सूर्य के पास उसकी सतह पर है और उससे आगे भी बम हैं। न्युट्रान जो सिर्फ पृथ्वी पर से जीवन को समाप्त कर देगा, इस धरा या वायुमंडल से क्योंकि वैज्ञानिकों को भौतिक वस्तु नष्ट होने का भय खाये जा रहा था, वह चाहते है कि भौतिक वस्तुएं यह दुकान, मकान, गाड़ीया बची रहें। मानव और जीव, जन्तु सारें प्राणी पशु पक्षी मर जायें इसकी उनको कोई परवाह नहीं है। अब आप कहेंगे की इसमें तो सब पूराना है नया क्या है? अब इस पर थोड़ा सा विचार करेंगे क्योंकि यह कुछ थोड़े से आधार भुत सिद्धान्त है। एक अस्तर तक खरबुजे का विकास होता है फिर उसका हरास होना प्रारम्भ हो जाता है। जो विकास है इसको ही वैज्ञानिक विगवैंग थ्योरी का नाम दिया है और जो हरास हो रहा है उसको ब्लैकहोल कहते है। यह ब्लैकहोल और वीगवैंग कि घटना सिर्फ ब्रह्माण्ड के विकास और प्रलय के लिए जिम्मेंदार नहीं है बल्कि जीवन के प्रत्येक के जीवन बीन्दु के लिए यही उत्तरदाई है, और ऐसा ही प्रत्येक प्राणी के साथ हो रहा है। मानव अस्तित्व रूपी जो मूल उर्जा है उसके तीन किनारे हैं एक आन्तरीक रूप से बहती है दूसरी बाहर की तरफ बहती है और तीसरी अपने अस्थान पर ही एक रस स्थिर अचल अदृश्य रूप से व्याप्त हो रहा है। विगवैंग का कार्य फैलना और ब्लैकहोल का कार्य सिकुड़ना जो आन्तरीक रूप में कार्य करता है। जब तक इस शरीर क विकास होता है। तब तक विगवैंग कि घटना घटती है, और जब शरीर का नाश अर्थात होता है तब ब्लैकहोल की घटना घटती है। इस भौतिक ब्रह्माण्ड में सबसे अधीक गुरुत्त्वाकर्षण ब्लैकहोल का ही है। ब्लैकहोल प्रकाश की किरणों को भी अपने से दूर नहीं जाने देता है। अपने भयंकर गुरुत्त्वाकर्षण के करण वह प्रत्येक वस्तु को स्वयं में समाहित कर लेता है। जब खरबुजा पूर्णतः पक जाता है तो वह स्वतः ही बेल से अलग हो जाता है। उसी प्रकार जब मनुष्य पूर्ण रूप से पक जाता है। पकने का मतलब है स्वयं को पूर्णतः जान लेना, चेतनता और जागरुकता के साथ सतर्क होकर स्वयं का साक्षात्कार कर लेता है, तो वह भी जो जड़ रूपी मन बेल है उससे आत्मा मुक्त हो जाती है। इसको दूसरी तरह से समझते है जब खरबुजा पक जाता है तो जिस शक्ति के प्रभाव विस्फोट हुआ था वह एक अस्तर तक बढ़ता है और वही शक्ति वापस पुनः रिटर्न हो जाती है। यह शक्ति रूपी उर्जा या चेतना इसको कुछ भी कह सकते है। इसके दो सिरे हैं ए और बी यह दोनों बहुत ज्यादा एक दूसरें के बहुत करीब है। लेकिन इनकी करीबता को मानव मन नहीं समझ पा रहा है क्योंकि मानव मन हमेंशा आगे की सोचता है या फिर पीछे की सोचता है। जबकी उस उर्जा के दोनों सिरें बिल्कुल पास है, और मन निरन्तर यात्रा करता है या तो एकस्ट्रावर्ट अर्थात भविष्य की वासना पर सवारी करता है या तो फिर इन्ट्रावर्ट आन्तरीक वासना पर सवारी करता है। इसका अर्थ सिर्फ यह है कि मन के जो उसके संसकार है वही उसको आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है इसके साथ जो इसके संसकार है वह मात्र एक प्रकार के अभ्यास ही हैं जो भी सीखा गया है वह सब मन की वासना का ही नाम है। जहां तक वासना है वहां तक मन और उसकी यात्रा है। वह किसी प्रकार की हो सकती है शक्ति को पाने की सम्पत्ति ऐश्वर्य भोग, बिलास, योग, संभोग की तृप्ति का आनन्द पाने की आकांक्षा जो मानव मन में काम वासना सबसे अधीक प्रबल है, और इस मन की यात्रा दो तरफा है एक आन्तरीक है और दूसरी बाहरी है। साधु, सन्त, योगी, फकीर, पीर, पैगम्बर कहते अन्दर की ओर चलों इसके लिए ही सारी साधनाओं का विधान इसलेए ही किया गया है। दूसरी तरफ सम्पूर्ण भौतिक जगत का आकर्षण बाहरी यात्रा आर्टिफीसियल का प्रतिनिधीत्व कर रहें है। मन या तो बाहर जाता है विषय भोग और सांसारीक भौतिक छणीक आनन्द को पाने की दौड़ में स्वयं का सर्वस्व बिलीन करने के लिए अपनी सारी उर्जा को खत्म करके बाहरी वस्तु को पाना ही मूल उदे्श्य बना लिया है। या वह अपना सब कुछ दाव पर लगा कर विषय वस्तु को पाना चाहता है। जिससे क्षणीक इन्द्रिय तृप्ती के लिए है। जितनी तीब्रता से मन बाहर की तरफ यात्रा करता है उतनी ज्यादा व्यग्रता और से उत्सुकता श्रद्धा के साथ अन्दर की यात्रा नहीं करता है। क्योंकि बहरी यात्रा करने में उसको हजारों लोग सह यात्री के रूप में मिल जते है। जबकी अन्दर की यात्रा करने में ऐसा नहीं है। वहां तो अकेले ही चलना पड़ता है यह तो मरने की कला है कोई कभी किसी के साथ नहीं मरता है। इस यात्रा पर तो कोई सुरमा ही चलने को तैयार होता है। या वह अपने मन को तैयार कर लेता है अपनी बागडोर को सम्हालने की ताकत सबमें कहा हैं। क्योंकि यह मार्ग पगडंण्डीयों जैसा है। इस पर तो एक-एक कदम चलकर ही रास्ता बनता है और वह स्वयं के लिए होता है। उस पर हम कितना भी चाहे किसी दूसरों को अपने साथ नहीं ले जा सकते या घसीट सकते है। क्योंकि यह मार्ग अदृश्य है जो आत्मा के उपलब्धी को सहज करता है। यह मार्ग बाहरी राज पथ जैसा नहीं है कि आपने अपनी गाड़ी नीकाली और चल पड़े यह तो मार्ग तो केवल दृश्यमय जगत के लिए ही संभव है। मन का स्वभाव अस्थिरता, चंचलता जो एक जगह कभी भी केन्द्रित नहीं होता है और यही मन की सबसे बड़ी समस्या है। मन से ही मानव या मनुष्य बनता है। परमात्मा मानव मन से परे है।
इस मार्ग पर चलने के लिए ही पतञ्जली कह रहें है। स तु दिर्घकारनैरन्तर्यसत्कार सेवितो दृढ़भुमिः।। अभी तक हम ने दो बातों के बारें में विचार किया ज्ञान और कर्म अथवा बाहरी और आन्तरीक यात्रा ज्ञान जो जानकारी के रूप में उपलब्ध होता है। यह अन्तर यात्रा का ही एक रूप है। क्योंकि विचार हमारें अन्दर चलते है जिस पर मन सवार होकर स्वयं को ज्ञानवान समझने का भ्रम पाल लेता है और उसी के अनुसार अपने हाथ पैर को चलाता है। बाहर की तरफ यह उसकी बाहरी यात्रा हो गई। एक तीसरे प्रकार का भी ज्ञान है जिसको उपासना कहते है। जहां पर न ही कर्म है ना ही वहां पर ज्ञान रूपी जानकारी की ही आवश्यकता है। जिसको पतञ्जली समाधिसिद्धरीश्ररप्रणिधानात्।। कहते है। उपासना अर्थात ईश्वरप्रणिधान जो उपनिषद् से आया है, उप अर्थात पास में वैठना परमात्मा के पास में बैठना जिसे ध्यान कहते है। स्वयं का सम्पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पण कर देना। समर्पण का मतलब है स्वयं का मर जाना समझ लेना। अब सिर्फ परमात्मा ही है मैं नहीं हूं जैसा की कबीर कहते है मेंरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है वह सब कुछ तेरा है, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे है मेंरा। वहां ना ही कोई कर्म ही है ना ही वहां पर किसी प्रकार की क्रिया ही है वहां पर होना ही पर्याप्त है अर्थात परमात्मा के पास केवल कुछ समय बैठना ही उपासना है। जिसको पतञ्जली संयम कहते है। संयम यह दार्शनिक शब्द है जिसका अर्थ है धारणा, ध्यान, समाधि जहां पर यह तीनो मिल कर एक होते है वही संयम है और जहां संयम है वहां पर ही सभी प्रकार की सिद्धियां हैं संयम सभी सिद्धियों का मूल कहा गया है। दो तरह के प्राणी होते है एक वह होते है जो उस ब्लैकहोल कि घटना को रोकना चाहते है ऐसा वह करते है जो बाहरी जगत के भौतिक आनन्द को प्राप्त करने के लिए व्यग्र है। ययाती सदृश्य जिसके लिए वह सब पूरा का पूरा साइन्टफिक प्रयोग करते हैं। दूसरें वह होते है जो उसका सपोट या सहयोग करतें हैं। यह मेडीटेसन ध्यानयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और कुछ नहीं यह सब पकने की कला मृत्यु में जीवित प्रवेश करने या मरने की कला सिखाती है। जिसकी बात पतञ्जली और उनके अनुगामी करते हैं। या फिर इस तरह से कहा जाए तो गलत नहीं होगा की यह सब ब्लैकहोल कहते है। जिससे आत्मा सहजता के साथ मन रूपी बेल जिसकी शाखांए सम्पूर्ण विश्व रूपी ब्रह्माण्डीय शरीर में व्याप्त है। उससे सहजता के साथ छुट जाते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में ध्यान का प्रयोग करते है, ध्यान क्या है? इसके लिए योग दर्शन कार पतञ्जली कहते हैं तत्र प्रत्ययैकता ध्यानम्।। ध्यान आसानी से शरीर और मन के पार चला जाता है। जितने भी महान दार्शन कार हुए है ब्रह्मा से जैमिनी और हमारें छः वैदिक दर्शन इसी की समर्थन में बातें करते हैं। उन सब का उदे्श्य केवल एक सभी मानव को समाधि उपलब्ध कराने के लिए ही उत्सुक है। महात्मा बुद्ध का भी यही मानना है, और जब मनुष्य अपूर्ण रहता है शरीर से पक जाता है लेकिन आत्मा से अधपका ही रहता है वह वुद्धी में ही जीता है। जो ठोस पदार्थ का ही तीसरा रूप है। जो ऐसा करते है उन्हें कष्ट उठाना पड़ता है जैसा की मैंने पहले बताया की दुःख तीन तरह होता है। शारीरिक, मानसीक, आत्मिक क्योंकि वह उस सार तत्त्व नियंत्रीत करने का ब्यर्थ प्रयास करते है नियंत्रीत तो नहीं होता है यद्यपि अनयंत्रीत अवश्य हो जाता है इसका मुख्य कारण है कि जीवन में ध्यान अनिवार्य रूप से नहीं सम्लित है और सभी शरीर में ही ज्यादा समय तक ठहरना चाहते है। जबकि जिससे उसकी उत्पत्ति हुई है जिससे जन्म हुआ है वह बीज बहुत अधीक अद्वितीय प्रबल शक्ति को धारण करता है। जैसा की पतञ्जली कहते है। तद् एवार्थ मात्रनिर्भासमं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।। समाधि और कुछ नहीं है अपने सम्पूर्ण स्वयं के शरीर से शून्य होना है। शरीर का जो भान उसका पूर्णतः समाप्त हो जाना ही समाधि है। इसके लिए ही ऋषि कह रहा है अहमं इन्द्र न शरीरं, अर्थात मैं शरीर नहीं हूं यद्यपि ईन्द्र शरीर का स्वामी इसका राजा सम्राट हूं। मैं शरीर नहीं हू इसका मात्र द्रष्टा हूं जो सब कुछ देखने वाला है जो भी शरीर और मन के द्वारा तमाशा हो रहा है। उसका साक्षी मात्र हूं ध्यान साक्षी की साधना का प्रथम चरण है। परज्ञानं ब्रह्म। ज्ञान से जो परे है वही ब्रह्म है अथवा अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म अर्थात मैं परमात्मा हूं जो अपनी आत्मा से भी परे है वह परमात्मा जो सर्वज्ञ है जो सिर्फ स्वयं के बारें में ही नहीं सोचता समझता या जानता है उससे भी जो परे है। जो सारी सिमा से परे है वही परमात्मा है तत् त्वं असी। तुम सब भी वही हो। अयंम् आत्मा ब्रह्म। यह आत्मा ही ब्रह्माण्डीय चेतना है और यह आत्मा की एक अवस्था है यहां तक पहुजने के लिए ही सभी मनुष्यों का इस पृथ्वी पर आगमन हुआ है। यहां से सभी प्रस्थान भी कर रहें है यह सब कुछ बहुत ही तीब्र गती से हो रहा है जिसकी मानव मन कलप्ना भी नहीं कर सकता है। सर्व खल्विदं ब्रह्म। सब कुछ ब्रह्म अर्थात परमात्मा उसके शिवाय कुछ नहीं है। दूरंदृशं गृहपतिमतर्युम्।। सब जगह वही ही है अर्थात सब जगह हमारी ही चेतना व्याप्त है। यह सभी प्रमाण वेद और उपनिषद् से लिए गए है।
कुर्वेन्वेह कर्माणि जीजिविच्छयते समाँ।
एवं त्वयि नानथतोऽस्ति ना कर्म लिप्यते नरें।।
अर्थात हे मानव सौ वर्षों तक तू जिने की ईच्छा कामना कर वह भी बीना कर्मों में लिप्त या तल्लीन हुए, अर्थात निस्काम कर्म करके। गीता में येगेश्वर कृष्ण यही बातें कहते है
प्रत्येक कण में जो ब्लैकहोल व्याप्त वह अपनी तरफ ब्रह्माण्ड रूपी प्रत्येक वस्तु के उर्जा को गरम करके पी जाता है यह सब की गर्भ की तरह कहे तो गलत नहीं होगा। जिसे मृत्यु भी कहते हैं जो आन्तरीक रूप से विद्यमान व्याप्त हो कर कृआन्वित हो रहा है। वास्तवीकता तो यह है कि मृत्यु तो है ही नहीं, यद्यपि प्रत्येक बीज में सुक्ष्म रूप से ब्लैकहोल ही व्याप्त है। जिसको ही मृत्यु के नाम से लोगों के लिए प्रख्यात किया गया है जो आन्तरीक रूप से कृयाशील है, और जो उसका बाहरी रूप है वह ब्रह्माण्डीय शरीर है है जिसे विगवैगं भी कहते है। इसलिए संस्कृत का पूराना सुत्र कहता है। यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे।। जो जीवन रूपी शाश्वत स्थिर अचल बीज है वह सभी का केन्द्र है। जिसे वैज्ञानिक वैक्ट्रिया कहते है और उसी को ऋषि चेतना आत्मा कहते है, जहां वैक्ट्रिया है वही पर आक्सिजन है। क्योंकि आक्सिजन पैदा होने का मूल कारण वैक्ट्रिया ही है। इसलिए वैज्ञानिक प्रयास कर रहे है की किसी तरह से वैक्ट्रिया को मंगल ग्रह पर स्थापित करना चाहते है। यदि मंगल ग्रह पर और उसके वायुमंडल में वैक्ट्रिया स्वयं के अस्तित्व को के बचान् सफल हो जाता है तो वहां पर पुनः एक बार नयी दुनीया बसाने की सम्भावना है। अभी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में ही वह मंगल ग्रह का आर्टिफीसियल वायुमंडल तैयार करके प्रयोग कर रहें हैं। चांद पर जीवन का रहना सम्भव नहीं है। वहां पर रीबोटीक संसार बसाने की पुरी तैयारी चल रही है। लेकिन उस पर एक खतरा भी है कि वह भविष्य में पृथ्वी से टकरा कर नष्ट हो सकता है। क्योंकि पृथ्वी का गुरुत्त्वाकर्रषण उसे खीच रहा है जिससे भवीष्य में चांद दो टुकड़ों में बिभक्त हो सकता है। ऐसा एक बार मंगल ग्रह पर पहले हो चुका है। जिसके कारण ही वहां का जीवन एक बार नष्ट हो चुका है। ऐसा ही पृथ्वी के साथ भी होने की सम्भावना है। जिस खतरें से बचने के लिए वैज्ञानिक प्रयास रत है।
इस वैक्ट्रिया का निर्वाण प्रकृति के जिन मूल तत्त्व के मिलने से हुआ है। वह बहुत सुक्ष्म है उसके अन्दर भी दो प्रकार की घटना घटीत होती है। एक बाहरी घटना जिसे विगवैंग थ्योरी के नाम से जानते है और ऐसी ही एक घटना आन्तरीक रूप से घटीत होती है जिसे विगवैंग कहते है। वैक्ट्रिया का जीवन सामान्यतः दो घंटे का होता है। सुक्ष्मता दो तरह की होती है एक तो वैक्ट्रिया है जिसे वैज्ञानिक सुक्ष्मदर्शि की सहायता से देख सकते है जिसे वैज्ञाविक नंगी आखों से नहीं देख सकते है उसको वह सुक्ष्म कहते है। एक दूसरें प्रकार की आध्यात्मिक सुक्ष्मता भी है जिसको सुक्ष्मदर्शि की सहायता से भी नहीं देख सकते है। वैज्ञानिक जिसे स्वीकारने से ही इन्कार कर देते है। लेकिन जो प्रबुद्ध पुरुष हुए है वह यह स्वीकारते है कि एक ऐसी सुक्ष्म शरीर है जिसका विज्ञान को ज्ञान नहीं है। विज्ञान मन की ब्याख्या करता है जो मन से परे है उस तक विज्ञान नहीं पहुच पाया है। जिसको ध्यान के माध्यम से ऋषियों ने साक्षात्कार किया है। ध्यान एक कला है जो इस कला को जानता है उसके कर्मों का संस्कार नहीं बनता है उसका प्रत्येक कर्म निस्कामता की आधारशीला पर खड़ा होता है। इसी को दूसरें शब्दों में ईश्वरप्रणीधान भी कहते है।
ईश्वरप्रणीधान का साधारण सा अर्थ है जो किसी पर किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं करता है। जबकि आम लोगों का जो जीवन जीने का तरीका है वह किसी विश्वास के आश्रीत ही है वह नहीं जानते हैं कि उनका जीवन किसी भी विश्रवास और भवीष्यवाणी से परे है। यदि वह विश्वास तुम सब से छीन लिया जाए तो तुम्हारा जीवन तुमसे जुदा हो जाएगा। जबकि मैं चाहता हूं कि तुम सिवाय विश्वास को अपना आधार मत बनाओ यद्यपि मैं चाहता हूं की तुम स्वयं को जानों और जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीवो। यदि तुम स्वयं को जानते हो तो तुम्हारें विश्वास कि तुमको कोई आवश्यकता नहीं है की तुम हो। मैं सारे विश्रवास को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर देना चाहता हूं। मैं किसी प्रकार का विश्वास या मान्यता को नहीं देना चाहता हूं यद्यपि मैं चाहता हूं की जीवन की नग्नता में जीवन के संगीत को पीयों तभी तुम समझ पाओगे अपनी मुर्खता और अपनी बेहुंदी मान्यताओं को। विश्वास से उपर उठ पाओं जो मंत्र कह रहा है सुगन्धिं पुष्टिवर्रधनम्।।
एक अमिर आदमी अपने बेटे को अपने साथ ले कर देश के उस इलाके में गया जहां पर बहुत गरीब लोग रहते थे क्योंकि वह अपने बेटे को समझाना चाहता था की देखों इस पृथ्वी पर कितने गरीब निर्धन और असहाय लोग रहते है जिनको दो वक्त की रोटी भी उपलब्ध नहीं होती है। उन गरीब और निर्धन के बीच में वह पिता और पुत्र दो हप्ते का समय लगा कर पूरा बिस्तार से सर्वेक्षण किया और देखा की उनका जीवन कितना घटीया और निष्क्रिय है। जब वह अपनी यात्रा करके लौट रहे थे तो अमिर आदमी ने अपने बेटे से पूछा बेटे यात्रा कैसी रही?
उसके बेटे ने कहा पिता जी बहुत अच्छा रहा अतिउत्त्म!
उस अमिर आदमी ने कहा कि बेटे तुमने देखा की वे तोग कितने गरीब है।
उसके बेटे ने कहा हां मैने देखा!
उस अमीर ने अपने बेटे से पूछा तो तुम बताओ की तुमने क्या देखा और उससे क्या शिक्षा प्राप्त किया उनकी गरीबी को देख कर?
उसके बेटे ने कहा पीता जी मैंने देखा कि मेरे पास केवल एक कुत्ता है और उनके पास चार कुत्ते है। हमारें पास केवल एक तालाब हे बगीचे के मध्य में और उनके पास एक बड़ी झील है जिसका कोई अन्त नहीं है। हमारें पास बिदेश से मगाई गई एक लालटेन है जो बगीचे में जलती है, और उनके पास आकाश के अनगीनित सितारें है जो बिना तेल के ही जल कर प्रकाश उत्पन्न करते है। हमारें घर के पास सामने एक आगन है और उनके पास दूर तक फैला खाली मैदान है। हमारें पास एक छोटा सा टुकड़ा जमीन का है और उनके पास बड़े-बड़े खेत हैं। हमारी सेवा के लिए हमारें पास नौकर हैं और वे दूसरों की सेवा करते हैं। हम भोजन खरीदते है और वह सब अपना भोजन स्वयं पैदा करते हैं। हमारें चारों तरफ हमारी रक्षा के लिए दिवाले बनाई गई है, और उनकी रक्षा उनके मित्र करतें है। उसके पिता जी ने जब अपने पुत्र का उत्तर को सुना तो उनके पास सीवाय मौन सहमती के कोई भी शब्द नहीं था। उसके बाद अमीर के बेटे के ने अपने पिता से कहा धन्यवाद आपकी बड़ी मेहरबानी जो आप मुझे यहां अपने साथ ले कर आए। जिससे मुझको ज्ञात हुआ की इनकी तुलना में हम सब बहुत गरीब हैं।
जैसा की वेद कहते है कि आ देवानामपि पन्थामगन्म। अर्थात हम सब निष्काम ज्ञानियों और प्रबुद्ध महापुरूषों के मार्ग का अनुसरण करें और सबसे बड़ा महापुरूष तो परमात्मा ही है वह अपने हृदय में ही रहता है हम सब उस इन्द्र अर्थात शिव जो कल्याण कारक अन्तर्यामीं है उसके बताए मार्ग पर चलने के लिए ही उद्योग करते रहें। वहीं हम सब का अस्तित्व है। भद्रं कर्णभिः श्रृणुयाम देवाः। हम उत्तम भावों और उच्य विचारों को ही अपने कानों से सुनने में समर्थ हो और स्वयं की ईन्द्रियों पर स्वयं को संयम हो, परमात्मा को अपने जीवन में धारण करें। वियवायुर्धेयहि यजथाह देव।। हम सब परमात्मा से प्रार्थना करते है कि हमारा जीवन सदा यज्ञमय कल्याणमय आनन्दमय और परमात्मा की क्षत्र छया में ही रहे, भले मनुष्य श्रेष्ठ लोगों के संगती में ही गुजरे और हम सदा कल्रयाण कारक निष्काम दिव्य कर्म में ही लगे रहें, जो बिना क्रोद किए गाली, मार,पाट को झेलता है। जिसके पास धैर्य की भण्डार है उसके पास पूरी सेना की ताकत है उसी को मैं पवीत्र आदमी कहता हूं।
बहुत समय पहले की बात है एक ब्राह्मण था जिसकी औरत महात्मा बुद्ध का सम्मान और उनसे सज्जनता विनम्रता प्रेम से बोलती थी। उस ब्राह्मण ने पहले उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन जल्दी ही उसकी पत्नी बुद्ध को अत्यधिक पसन्द करने लगी और यह निरन्रतर बढ़ने लगा जिसके कारण उसके पती को इस बास से ईर्श्या होने लगी। एक दिन वह महात्मा वुद्ध के पास उनके आश्रम में गया। वहां जाकर उसने उसने महात्मा वुद्ध बहुत प्रश्नों का बौछार करने लगा। क्योंकि वह महात्मा वुद्ध को शास्त्रार्थ करके उनको परास्थ करना चाहता था। वह चाहता था यदि महात्मा वुद्ध को बिवाद करके हरा देगा तो वह विवश होकर यह अस्थान छोड़ कर कही और चले जायेगें, और वह स्वयं को अपमानित समझेगें। इस तरह से उसकी पत्नी समझ जायेगी की उसने महात्मा वुद्ध का पर श्रद्धा अनुसरण करके बहुत भुल की है वह इसके योग्य नहीं है।
उस ब्राह्मण ने महात्मा बुद्ध से पूछा कि किसको मारें जिससे हम सब जीवन में प्रशन्नता और शान्ति को प्राप्त कर लेगें।
महात्मा बुद्ध का उत्तर बहुत सरल और स्पस्ट था उन्होंने कहा जब अक आदमी क्रोध के साथ शान्ति देना, सन्तुष्टि देना, प्रेरणा देने का त्याग कर देता है, तब वह शान्ति और प्रसन्नता पुर्वक जीवन जी सकेगा। आगे उन्होंने कहा जिस आदमी ने अपने जीवन में से क्रोध को मार दिया उसने उसने सब पर बिजय प्राप्त कर लिया। क्योंकि क्रोध अकेले ही सभी तरह की शान्ति, प्रसन्नता, सुख, आनन्द को मारने की सामथ्र्य रखता है।
वह ब्राह्मण महात्मा बुद्रध के उत्तर को सुन कर बहुत अधीक प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ और उसने निर्णय किया कि वह एक भिक्षु बन जायेगा। भिक्षु बनने के कुछ समय के बाद वह आर्हत अर्थात सनत्त्व को उपलब्ध हुआ। जब उस ब्राह्मण के छोटे भाई ने सुना की उसका बड़ा भाई भिक्षु बन गया है। तो वह बहुत क्रोधित हुआ, वह महात्मा बुद्ध के पास आया और उसने उनको बहुत बुरे-भले शब्दों के साथ गालियां देने लगा। जब वह अपने गन्दे शब्दों का डंक मारना बुद्ध पर पूरा कर लिया। तब महात्मा बुद्ध ने उससे कहा अपने घर आने वाले किसी मेहमान को तुम भोजन का निमंत्रण देते हो और वह तुम्हारें दिये गये भोजन में से जरा भी खाने से मना कर देता है। इसी तरह से जो तुमने मुझको गालियां दिया है उसको मैंने लेने से मना कर दिया। उस ब्राह्मण को अपनी गल्ती का यहसास हुआ और वह स्वयं कृत्य पर अत्यधिक शर्मिन्दित महसूश करने लगा। उसके अन्दर महात्मा बुद्ध के लिए बहुत ज्यादा श्रद्धा जागृत हुई। क्योंकि उसने वह शिक्षा प्राप्त कर लिया जिससे उसके ज्ञान चछु जो सदियों से बन्द थे वह खुल गए, वह भी आगे चल कर महात्मा बुद्ध का शिष्य भिक्षु बन गया, और कुछ समय के बाद वह भी आत्मज्ञान को उपलब्ध हुआ। उस ब्राह्मण ने आश्चर्य के साथ कहा की वह महात्मा बुद्ध के लिए ही यह संभव है जो उनको गालियां देता है उसको भी बुद्धत्त्व को उपलब्ध कराने की क्षमता रखते है।
महात्मा बुद्ध ने कहा मैं कभी भी गलत का गलत उत्तर नहीं देता हूं, क्योंकि मेरे पास ऐसे बहुत सारे लोग आते हैं जो मुझसे बदला लेने की भावना रखते है या मुझे अस्वीकार करते हैं।
पहले समय जापान में, बांस के पोपले और उसके उपर मोटे कागज को लपेट कर उसके अन्दर मोमबत्ति को जलाकर लालटेन की तरह से उसका उपयोग करते थे। एक रात्री को एक अन्धा आदमी अपने एक मित्र से मिलने के लिए गया। जब वह अन्धा आदमी अपने मित्र से मिल कर घर वापिस आने के लिए खड़ा हुआ तो उसके मित्र ने उसके हाथ में लालटेन देते हुए कहा इसको अपने साथ ले जाओ बाहर काफी अन्धेरा है। उस अन्धे आदमी ने कहा मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता है बाहर अन्धेंरा हो या प्रकाश हो मेरें लिए तो दोनों एक समान है। तब उसके मित्र ने कहा मैं जानता हूं की तुम्हें अपना रास्ता तलासने के लिए किसी प्रकार के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन यह लालटेन तुम्रहारें पास नहीं रहेगा तो सायद कोई तुम्हारें उपर ही चढ़ जाये या अन्धेंरें कि वजह से धक्का मार दे जिससे तुम्हें जख्मी कर सकता है। इससे अच्छा है की तुम अपने साथ यह लालटेन ले जाओ जिससे दूसरा तुम्हें अन्धेरें में देख कर नहीं टकराएगा।
उस अन्धे आदमी ने अपने मित्र की सलाह मान कर अपने साथ लालटेन लेकर अपने घर के लिए चल पड़ा। जब वह काफी दूर अपने मित्र के घर से एक चौरास्ते पर उस समय एक आदमी आया और उस अन्धे आदमी से टकरा गया। तब उस अन्धे आदमी ने उस अजनबी आदमी पर तिल्लाते हुए कहा कि देखो बाहर तुम कहां जारहे हो? क्या तुम इस लालटेन को देख सकते हो? उस अजनबी आदमी ने कहा भाई तुम्हारें लालटेन की मोमबत्ती जल चुकी है।
ओ3म् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्रणमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ओ3म् शान्तिः शन्तिः शान्ति।।
अच्छी प्रस्तुति, ब्लॉग लेखन में आपका स्वागत, हिंदी लेखन को बढ़ावा देने के लिए तथा पत्येक भारतीय लेखको को एक मंच पर लाने के लिए " भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" का गठन किया गया है. आपसे अनुरोध है कि इस मंच का followers बन हमारा उत्साहवर्धन करें , हम आपका इंतजार करेंगे.
जवाब देंहटाएंहरीश सिंह.... संस्थापक/संयोजक "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच"
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