गुरुवार, 17 मार्च 2011

अन्तरयात्रा मै भारत हूं।


कुर्वेन्वेह कर्माणि जीजिविच्छयते समाँ। एवं त्वयि नानथतोऽस्ति ना कर्म लिप्यते नरें।। अर्थात हे मानव सौ वर्षों तक तू जिने की ईच्छा कामना कर वह भी बीना कर्मों में लिप्त या तल्लीन हुए, अर्थात निस्काम कर्म करके। गीता में येगेश्वर कृष्ण यही बातें कहते है।

   वेद शब्द के तीन अर्थ सामान्यतः किये जाते है जिसको त्रयी विद्या भी कहते है। ईश्वर जीव प्रकृती, परमात्मा को सत्त्चिदानन्द सत्य अर्थात आन्तरीक अस्तित्व अन्तःकरणीय सत्य, चित्त अर्थात श्रेष्ट चेतनता श्रेष्ट आनन्द जो अस्तित्व से आता है। केवल परमात्रमा के सभी वस्तु नासवान हैं। परमात्मा के पास ही सबसे अधीक शक्तिशाली शक्ति है। परमात्मा ही इस जगत का सबसे बड़ा स्वामी है और सबका रक्षक है। परमात्मा ही एक ऐसा तत्त्व है जो सब जगह सब में विद्यमान हैं। परमात्मा ही सभी प्रकार की शक्तियों का मालिक और उद्धारकर्ता है। परमात्मा सब कुछ जानने वाला है वह सब के हृदय में बैठ कर सबका हर पल साक्षात्कार कर रहा है। उससे कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता हैं ना ही कुछ भी छुप सकता है क्योंकि वह सर्वज्ञ है। परमात्मा सर्वव्यापक है सबकुछ जानने वाला है। परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाअन्तर्यामी, सर्वोत्पादक, अजय, अमर, अभय, नित्य, पवीत्र, अनन्तज्ञान, त्रीकालदर्शि, परमात्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का प्रमुख श्रोत है जिसको सत्य के द्वारा जाना जाता है। परमात्मा ही सबसे अधीक आनन्दित और आनन्द को देने वाला है। परमात्मा ही सहसे श्रेष्ट न्याय करने वाला न्यायधीस है जो हम सब को हमारें कर्मों के आधार पर निस्पक्ष भाव से न्याय करता है, और उपयुक्त कर्मों का फल उपहार पुरष्कार के रूप में देता है। केवल परमात्मा ही पूर्ण है, और सभी प्रकार की अपूर्णता से रहित  है। परमात्मा ही केवल एक ऐसा तत्त्व है जिसकी कोई भी मानव परीपूर्रण ब्याख्या नहीं कर सकता है। क्योंकि वह अब्याख्य है उसको व्यक्त करने की जो भाषा वह मौन की भाषा है। आज के समय में एक क्षण के लिए भी किसी का मौन होना असंभव के समान है उवर से तो लग सकता है की मौन है लेकिन मन कभी शान्त या मौन नहीं होता है। उपर से उसने मौनता को ओढ़ रखा है। विचार उसके अन्दर बिना किसी ब्यवधान के  निर्बिध्न रूप से निरन्तर हमेशा चलते रहते है। जिसके लिए ही स्टेफिन हाकिन्स कहता है केवल परमात्मा ही एक ऐसा विषय है जिसकी ब्याख्या या परीभाषा हम नहीं कर सकते है। इसका केवल हम अपनी आत्मा से अनुभूती कर सकते है। दूसरें सारें मार्ग अपूर्ण है। अदृश्य की क्या ब्याख्या कर सकते है? यही एक रहस्य है, और जो भी उससे जुड़ा है वह भी उसके गुणों से परीपूर्ण है जीवन का मूल आधार वही हैं इसलिए मै कहता हूं की यह जीवन रहस्य है इसमें जितना प्रवेश करते जायेगें उतना ही आनन्द बढ़ता जायेगा। परमात्मा एक है उसको लोग अपने अनुसार अनन्त नामों से जानते है। जैसा की वेद स्वयं कहते हैं एकं सद विप्रा बहुदा बदन्ति। आनन्द और रहस्य के साथ आश्चर्य की अनुभूती होती है।
   जुहोत प्र च तिष्ठत। प्रतिष्ठा सम्मान, समृद्धि और ऐश्वर्य आनन्द की प्राप्ति त्याग से होती है।
   आत्रमा सभी प्रणीयों में विद्यमान है इसको सिवाय वैज्ञानिकों के कोई भी नकार सकता है। वैज्ञानिक इसलिए नकार रहें है क्योंकि वह आत्मा का साक्षात्कार करने में पूर्णतः असमर्थ है। यह शाश्वत सत्य है कि आत्मा ही जीवन का मूल है। आत्मा के संसाधन अनन्त है जो एक दूसरें पर आश्रीत है और अनन्त जीवन बीन्दु के साथ बिभिन्न प्रकार की है। जबकी परमात्मा एक है और आत्मायें अनन्त है। अनन्त का अर्थ सिर्फ यह है की जो सिर्फ शरीर की सिमा में नहीं आता है। जो मानव अपनी समग्र उर्जा को केवल शरीर के लिए ही खर्च कर देते है वह एक देशीय है, और जो मानव यह देखता है कि आत्मा समग्र में ब्याप्त है। और सब को सभी परिस्थितियों में एक समान देखता है। वह न ही ज्यादा पाकर बहुत ज्यादा बहुत सुखी होता है और ना ही कभी किसी प्रकार के बड़े दुःख को आने पर दुःखी ही होता है। वह दोनो में एक समान रहता है। जो व्यक्ति ऐसे है उनकी आत्मा को एक देशीय नहीं कहा जा सकता है। उसके लिए अपना पराया कोई भी नहीं है वह दोनो से परे है परमात्मा की तरह अन्तर सिर्फ इतना है। आत्मा जब स्वयं में ही केन्द्रित है तब त् एक देशीय है। आन्तरीक जो चेतनता है यह सब उसी से सम्भव है अन्यथा यह शरीर तो लास मिट्टि के पुतले के समान है। सारी उर्जा तो शरीर में भी विद्यमान है और सब का श्रोत आत्मा है। जिस प्रकार से कमप्युटर है उसी प्रकार से यह शरीर है। बिना बिजली रूपी उर्जा के यह कमप्युटर रूपी मसीन कार्य करने से इन्कार कर देता है। कमप्युटर बिना बिजली के  सिवाय एक डीब्बे के और क्या है? इसी प्रकार बिना आत्मा के यह शरीर भी उसी प्रकार से है।
   प्रकृति जो जड़ है जिसमें सिर्फ सत् है इसमें ना चेतनता है ना ही आनन्द है जिसे भौतिक पदार्थ कहते है यह सब प्रकृती में आता है।
   इस ब्रह्माण्ड यही तीन सत्तायें है और इसी को जानना है।  जो शाश्वत है। प्रकृति के अन्दर एक गुण है आत्मा के अन्दर दो गुण है और परमात्मा के अन्दर तीन गुण आते है। प्रकृति जिससे शरीर बनी है। इसके अन्दर ना ही चेतनता है और ना ही किसी प्रकार का आनन्द ही है इसमें सिर्फ भ्रम और पाखण्ड के कुछ नहीं है। यानी जड़ है मन के अन्दर दो गुण है वह आत्मा के शक्ति से चेतनता को उपलब्ध करता है और प्रकृति से जड़ता को, चेतन और जड़ जो दोनो के मिश्रण से बनता है। इसमें प्रकृति का गुण जो शरीर से प्राप्त करता है। तीसरी सत्ता आत्मा है जो परमात्मा के गुण को धारण करने का सामर्थ रखती है। जिस प्रकार आग के पास लोहे के रहने से आग के गुण लोहे मेंआ जाते है। उसी तरह से आत्मा जब परमात्मा के पास रहती है तो उसके गुणों को वह प्राप्त कर लेती है। जो आत्मा का निखरा हुआ रूप है।
   जिस प्रकार दुध का निखरा हुआ रूप घी है उसी प्रकार से आत्मा अपने को निखार लेती है साधना के माध्यम से तो वह पारमात्मा जैसी हो जाती है। भग में लिंग अग्नी में पारा उसको जानो गुरु हमारा। अर्थात जिस प्रकार से भग अर्थात (योनि) के अन्दर लिंग रहे बिना स्खलन के हुए अथवा जिस प्रकार से अग्नि के अन्दर पारा रहता है। जब आत्मा ध्यान की साधना के द्वारा निखर जाती है तो वह परमात्मा मय हो जाती है। तब उसमें तीन गुण आ जाते हैं।  प्रकृति का गुण जड़ता यानी सत्यता, यह शरीर सत्य है जो परीवर्तनशील है।  यह परमात्रमा का एक गुण है। सत्य अर्थात जो परीवर्तनशील हर पल नया है। दूसरा गुण मन की चेतनता  यानी जागरुकता तीसरा गुण आनन्द है इसलिए ही उसको सत्य-चित्त-आनन्द कहते है, और इस सत्य चेतना यानी आत्मा के आनन्द को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम उदेश्य है, और इसको जानने के बाद जो उपलब्ध होता है। इसका सार रहस्यपूर्ण अगोचर अदृश्रय आनन्द जिसे मैं चोथी सत्ता कहता हूं। वैज्ञानिक भी एक चोथी सत्ता को स्वीकार करते है जिसे वह क्वार्क के नाम से जानते है। जिस प्रकार दुध से दही, दही से छाछ और छाछ से घी निकलता है। यह सब मथने के बाद मिलता है। बिचार मंथन करना है शरीर जो दुध की तरह से है। इसको पहले समझना होगा जो अपना पहला चरण है।        
    एक बहुत बड़ा महात्मा बुद्ध का जापान में प्रसिद्ध आश्रम था उसका जो मठाधीस था असके अन्दर कुछ आगई वह आलसी प्रमादी हो गया जिसके कारण वह बहुत गंभीर कठीनाई से घीर गया था। उस आश्रम के भिक्षु भी आलसी और दुराचारी प्रवित्ती के हो गये। वे अपनी सभी साधनाओं को करना छोड़ दिया और जो आगन्तुक भिक्षु थे वह भी वहां से जाने लगे और जो वहा पर थे वह भी यु ही पड़े रहते किकंर्तव्य मुढ़ों की तरह। यह सव देख कर उस आश्रम के जो सहयोगी और विश्वास पात्र व्यक्ति थे वह भी उस आश्रम से दूर दूसरें आश्रमों कि तरफ रुख करने लगें वह आश्रम उन्हे रेगीस्तान जैसा प्रतित होने लगा।
   उस आश्रम का जो मठाधीस था वह भी अन्त में उस आश्रम के छोड़ कर बहुत दूर एक दूसरे सन्यासी के पास गया। वहां जाने के बाद उसने अपने आश्रम के पतन की सारी कहानी उस दूसरे मठाधीस को सुनाया। उस मठ के महन्त की बहुत तीब्र व्यग्र इच्छा थी की उसका आश्रम पुनः उसी सम्मान को प्राप्त करें जो उसका अतीत काल में लोगों के दृष्टि में पहले सम्मान और आदर सत्कार श्रद्धा थी।
   जिस सन्यासी के पास वह मठाधीस गया था उस सन्यासी ने बड़ी सहानुभूति से उसकी सभी बातों को सुना और उसके आखों में झाकते हुए उसने कहा तुम्हारें आश्रम के पतन का मुख्य कारण है कि तुमने अपने भिक्षुओं के मध्य में क्षद्मवेस में महात्मा बुद्ध भी रह रहे थे तुमने उनको कभी आदर सत्कार सम्मान नहीं दिया। मठाधीस बुरी तरह से कांप उठा और पैर के निचे से जैसे जमीन खीसकने लगी, उसके मन में महशुस हुआ की वह रसातल की यात्रा पर निकल पड़ा है।  
   वह अपने आश्रम में ऐसे रहता था जैसे एक निस्वार्थ व्यक्ति रहता है। उसने कहा यह कैसे संभव होगया की महात्मा बुद्ध हमारें भिक्षुओं के मध्य में रहते थे? और मैनें उनको पहचाना नहीं।  
    वह मठाधीस अपने पुराने आश्रण में वापिस आया और अपने सभी भिक्षुओं को वह सब कुछ बताया जो उसको दूसरें आश्रम के मठाधीस ने उससे कहा था, की तुम्हारें आश्रम में महात्मा बुद्ध भिक्षु के रूप में रहते थे और तुम उनको सम्रमान नहीं देते थे। सारें भिक्षु एक दूसरें को आश्चर्य से देखने लगें और सब में उनको महात्रमा वुद्ध के होने का भान होने लगा। क्योंकि यह कोई नहीं जानता था कि किसके अन्दर महात्मा वुद्ध की आत्मा है और उनके मध्य में कौन है जो महात्मा जैसा है। इसलिए वह सब प्रत्येक का सम्मान करने लगें क्योंकि उसमें से कोई भी हो सकता है। अर्थात सब में महात्मा वुद्ध निवास करते है। उस आश्रम के प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव ही बदल गया। यह देख कर उस आश्रम के पूराने विश्वास पात्र सहयोगी लोग पुनः आने लगे और उस आश्रम में फिर से पहले की तरह से कोपलें खिलने लगी। नये आगन्तुक भिक्षु आकर अपनी साधना में लगने लगे, उस आश्रम का पूरा का पूरा काया कल्प ही हो गया। जो आश्रम उजड़ गया था उसमें फिर से नइ कोपले खिलने लगी और वह आश्रम उसी आदर सम्मान और लोगों की श्रद्धा, गौरव, ऐश्वर्य का प्रमुख केन्द्र बन गया।
   इस कहानी का इतना अर्थ है की परमात्मा तो हम सब के प्रत्येक प्राणी के अन्दर विद्यमान है। यदी हम सब को ऐसे देखे की सब में परमात्रमा है। तो हम सव का ऐश्वर्य ही बढें और इसके विपरीत देखते है तो वही होती है जो उस मठाधीस और उस आश्रम का हुआ था। यही हम सब के साथ भी हो रहा है। अपने दृष्टिकोण को बदलते ही सृष्टि जगत बदल जाता है।    
  इस शरीर में कुल आठ चक्र हैं जिसे योगी जाग्रीत कर लेते है वही आठों जगह आत्मा का केन्द्र है जहां से आत्मा मुख्यतः जुड़ती है उन्हीं आठ अस्थानों को चक्र के नाम से जानते है। पहला मूलाधार जो मानव लिंग के पास होता है जो सामान्य जन होता है उनकी आत्मा शरीर छोड़ते समय उसी से निकलती है। दूसरी बात जब पुरुष स्त्री के गर्भ में अपने विर्य को सिचंन करता है। वह उसी चक्र के जाग्रत होने से ही होता है। जिसका वह चक्र जाग्रत नहीं होता है वह नपुसंक होते है। उनमें बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं होती है। जिस प्रकार घोड़े और गदही के संयोग से जो प्रजाती पैदा होती है खच्चर वह भी इसी प्रकार की होती है। यह सबसे निकृष्ट मार्ग कहा गया है। आत्रमा के निकलने और भी कई मार्ग है जैसे दूसरा चक्र स्वाद्धिठान है जो लिंग के उपर और नाभी के निचे होता है। तीसरा मणीपूरा है जैसा की नाम से ही प्रतित हो रहा है यह मणी कै केन्द्र है। यह मणी हीरा-मोतीयों वाला नहीं है। इसी चक्र से आत्मा नाभी से जुड़ी होती है, जिससे बच्चा मां की गर्भ में जुड़ा होता है एक पतली नालि से जिसको जन्म के बाद काट दिया जाता है। पुनः बच्चा अपनी नाक, कान, आंख, गुदा, जनेन्द्रिय आदि इन्द्रियों का प्रयोग करता है। जन्म से पहले मां के साथ बच्चा उस नाल से एक होता है वह अपनी इन्द्रियों का पहली बार करता है। इसलिए ही इस चक्र को मणीपूरा कहते है। चौथा चक्र हृदय के पास होता है। हम यहां पर के एक सरसरी नजर से देख रहें है जबकि उसके बारें में जानते है और उसको साध लेते है वह आनन्द को उपलब्ध होते है।  वह मानव औरों की तुलना अधीक स्वाभाविक जीवन्त और प्रसन्नचित्त रहता है। प्राण हीलिंग चिकित्सा का आधार यही चक्र है यह पद्त्ति चिन में बूहुत अधीक प्रचलित है। बह सब इसका दावा करते है कि किसी भी प्रकार की बिमारी का इलाज वह चक्रों के माध्यम से कर सकते है जो चक्रों को जाग्रत करके करते है। इसमें पूण्यता और आन्तरिक स्वच्छता की काफी आवश्यक्ता पड़ती है। और मैं कहता हूं की मनुष्य की सारी बीमारी का इलाज ध्यान के माध्यम से कर सकता हूं। क्योंकि यह आध्यात्मिक शक्ति है जिसका सुबिधा पूर्वक प्रयोग करके वह सब कुछ किया जा सकता है जिसकी जीवन में तृष्णा है। पाचंवा चक्र गर्दन के पास काक कुर्णुम पतन्ञजली इसके बारें में कहते है योग दर्रशन में बिस्तार से किया है उस पर भी विचार आगे किया जायेगा। छठा महत्त्वपूर्ण चक्रों में से एक है जिसे आज्ञा चक्र कहते है यह दोनों आखों के मध्य में भ्रुमध्य ललाट जो सामने मस्तक के केन्द्र में यह बहुत जल्द जाग्रत किए जा सकते है। जिसे शिव नेत्र के नाम से पुकारते है या कहा जाता है। सातवां चक्र कपाल खोपड़ी के आगे होता है जिसे ब्रह्मरन्ध्र भी कहते है, और अन्तिम आठवां चक्र जिसे सहस्रत्र कमल कहते है। यह हमारें सर के बिल्कुल मध्य में जहां पर हिन्दुओं की चोटी होती है। इसका अपना ही आनन्द और रहस्य है। आन्तरीक जगत की ओर एक संकेत है। इसलिए लोग आज भी इस परम्परा को श्रद्धा के साथ रखते है। इस चक्र परम्परा का प्रारम्भ यही से हुआ है। इसकी खास बात यह है की इससे जिस मनुष्य की चेतना निकलती है तो वह मोक्ष निर्वाण को उपलब्ध होता है। हमारी रीढ़ की हड्डी  में दो नाणीयां मुख्य होती है इनको इंगला पिगंला के नाम से जाना जाता है। उनके मध्य एक सुक्ष्म नाड़ी होती है। जिसे सुस्मणा कहते है। इसी नाड़ी में सारें आठ चक्र होते है। इसको जाग्रत करने के लिए कुण्डली को जाग्रत करना पड़ता है। जब   कुण्डली ध्यान के प्रयोग से जाग्रीत हो जाती है। तब आत्रमा जो अधोगती करती थी वह उर्ध्व गती करने गती है, और मृत्यु के समय जा ग्रत अवस्था में ध्रयानस्त हो कर सहष्त्र कमल से नीकलती है। जिससे मोक्ष या मुक्ति निर्वाण को उपलब्ध होता है। अपनी आत्मा जो दूसरी बात कह रही है इस मंत्र में वह है। अग्निनाग्निः समिध्यते। अग्नि के द्वारा अग्नि भली प्रकार चमकती है अर्रथात प्रेम से प्रेम बढ़ता है और शत्रुतता से शत्रुतता ही बढ़ती है ज्ञान से ज्ञान और अज्ञान से अज्ञान ही बढ़ता है।
   नौ द्वार अर्थात यह शरीर नौ द्वारों वाली है। जहां पर देवता रहते है उनके देख रेख में इन सारे द्वारों से जो सब कुछ आता-जाता है उसका सारा कार्य होता है, और इसे पुरी अयोद्धा के नाम से जानते कहते है। अर्थात यह शरीर एक सामराज्य की तरह है। जिसका मंत्री मंत्रो को जानने वाला मन है। और इसका राजा आत्मा है। और इन्द्रिया इसकी प्रजाए है जिसमें पांच मह तत्त्व यानी अग्नी, वायु, पृथ्वी, आकाश, जल, जिससे यह स्थुल शरीर बना है। पांच कर्म इन्द्रियां हाथ, पैर, गुदा, लिंग है। जो कर्म करते है आत्मा के लिए। पांच ज्ञानेन्द्रियां है आख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, इनसे आत्मा को ज्ञान प्रप्त होता है। सोलहवां मन और सत्रहवां बुद्धि है। शरीर माद्धयम खलु धर्रम साधनम् । यह शरीर सबसे बड़ा धर्म को अर्जीत कमाने वाला साधन रूपी भौतिक धन है। शरीर भी पांच प्रकार के बताए गए है। अन्रमय का तैत्रीय उपनिषद की ब्रह्मानन्द बल्लि के दुसरें अनुवाक में किया गया है और वह अन्यमय हमारा पाचंवा शरीर है।
    तस्माद्वाएतस्मादन्नरसमयादन्योऽन्रतरप्राणमयःतेनैषपूर्णः।
   अर्थात उस प्रतिपादन किये गये अन्न रस के बने हुए शरीर के अन्दर और शरीर से अलग प्राण तत्त्व है। इस प्राण तत्त्व से शरीर पूर्ण है। यह प्राणमय भी एक कोस है। जो अन्नमय कोस से भी सुक्ष्म रूप से शरीर में व्याप्त है।
   तस्माद्वाएमस्मात्प्राणमयादन्योंन्तरआत्मामनोमयःतेनैषपूर्णः।।  
   अर्थात उस प्राणमय कोश के अन्दर उससे अलग उससे सुक्ष्म आनन्दमय कोश है। यह पांच प्रकार की स्थुल से सुक्ष्म शरीर है।                           
   एक इल्लि पेड़ पर रहने वाला किड़ा था। वह बहुत ज्यादा उदास और दुःखी रहता था। क्योंकि उसके चारों तरफ का जो वातावरण था उसको बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। जिस वृक्ष पर वह रहता था उस पेड़ के डालियों पर जो पत्ते थे वह आधे मुरझाए और पिले पड़ गए थे। और उन पत्तो का स्वाद भी बहुत बुरा लगता था। हवायें बह रही थी मौसम बहुत ठण्डा था उस इल्ली को यह सब जरा भी पसन्द नहीं था।
   उसका पेड़ अकेला नहीं था। वहां पर और भी पक्षी पंख वाले रहते थे। उसको कोइ भी अच्छा नहीं लगता था उसके पड़ोस में एक पेड़ पर एक चिड़ीया भी रहती थी वह उस इल्ली के पेड़ से अच्छा पेंड़ था। वह इल्ली को अच्छा नहीं लगता था वह इल्ली बहुत भयभीत रहता था क्योंकि वह चिड़ीया उसको खा सकती थी। वह सुर्य के प्रकाश में भी अपने रोंयेदार पंजे को नहीं हीलाता था।अवने पैरों के हमेंशा अपने पेट से चिपका कर रखता था। उसके लिए वह पूरी घाटी का पूरा वातावरण सम्पूर्ण प्रकृति जैसे उसके बिरुद्ध में हो ऐसा उसको प्रतित होता था। उसको हर तरफ से केवल अपने जीवन के लिए नकारात्मक पहलु ही हर कोड़ से दिखाई देता था। वह हर पल हर समय बहुत दुःखी और कष्ट, पिड़ा, संताप में ही रहता था।
   लेकिन एक दिन अचानक जब वह इल्लि सो कर उठा धुंधलापन और अस्पष्ठता के साथ। लेकिन जब उसने अपने चारों तरफ देखा तो अजीबोंगरिब आश्चर्य चकीत प्रसन्नता के साथ बहुत आनन्दित मुसुस कर रहा था। उसके अन्दर कुछ अलौकिक अनुभूतियों का स्पन्दन हो रहा था ,जैसे ही उसने इस अद्भुत स्पन्दन के स्वाद का रस मिला उसने निश्चय किया की आज वह अपने दीन का प्रारम्भ करेंगा। आज स्वयं से उसको किसी प्रकार की कोई शीकवा या शीकायत नहीं थी। आज उसको जीवन का हर तरफ प्रकाश और उज्जवल पक्ष ही दिखाई दे रहा था। अब उसको मौसम से कोई शीकायत नहीं था कि वह कैसा है ना ही उसको अपने बगल में रहने वाली चीड़ीया से ही किसी प्रकार का कोई भी भय नहीं था, ना ही उसको पेड़ के मुरझायें पिले पत्तों से भी कोई शीकायत नहीं थी।  
   आज वह समझ गया की यह सारी वस्तु उसके दुःख का परेशानी का मूल कारण नहीं है और इनके अन्दर वह सामर्थ्य भी नीं है जो उसको दुःखी कर सके। वह सब बस्तुयें तो पहले जैसी ही थी। उनमें किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं आया था। बदलाव तो उस इल्ली का भीतर आया था जिसके कारण सारा जगत उसको लिये आज आनन्द को बरषाने वाला बन गया था। और उसको आज वह सभी वस्तुयें जिससे कभी उसको दुःख होता था वहीं आज उसके आनन्द कारण बन गई थी। उसने अपने अन्दर महशुस किया की स्वयं के अन्दर ही अत्यधीक आनन्द बढ़ रहा है। उसने अपने अन्दर पूर्रण उर्जा के बिस्फोट को को अनुभव कर रहा था। आज स्वयं को वह बहुत सुरक्षीत महशुस कर रहा था। जबकी चिड़ीया भी थोड़ी दूरी पर एक दूसरें पेड़ पर अपने पोखों को फड़-फड़ा रही थी। आज उसको उस पेड़ के पत्तें पहले से कहीं अधीक हरों और रस भरे लग रहे थे और मौसम कल से अधीक गर्म और खुस गवांर लग रहा था। वह अपनी शरार को भी पहले कहीं ज्यादा स्वस्थ्य और ताजा लग रहा था। वह न ही ज्यादा पतला और ना ही वहुत ज्यादा मोटा ही था। वह इस समय जैसा भी था स्वयं को बहुत श्रेष्ट महशुस कर रहा था। आज वह स्रवयं को वहुत किमती समझ रहा था। उसकी दृष्टि अविश्वसनीय रूप से अत्यधीक साफ और स्पष्ठ हो गई थी। जैसे ही उसके आखों पर से किचड़ का पर्दा हटा और उसने देखा कुछ छोटे-छोटे उर्जा पुंज की तरंगें उसके चारों तरफ गुंज रही थी, उसके नरम लचीलें और लम्बें शरीर में। यह सब उसको सहज सरल उत्सवमग्न लग रहा था।
   कहानी का अर्थ इतना है की स्वर्ग और नरक यहीं पर हैं। यह एक मानसीक स्थिती है। यह तब बदलता है जब हमारें अन्दर बदलाव आता है। वह तत्क्षण बदल जाता है। वह केन्द्र है जहां पर सारें परीवर्न होते हैं वहां की कोई वस्तु हमें प्रभावित नहीं करती है। क्योंकि हमारें अन्दर जो खजाना है उसे मानव नहीं जानते हैं और जो उसको जो जान जाते है। वह अफना स्वर्ग वहीं पर पैदा कर लेते है जहां पर वह होते हैं।
   यह आत्मा बहुत बलवान है और आत्मा ही सभी प्रकार के बल का आश्रय केन्द्र है, और सारें बल का देने वाली हैं। इसकी सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड उपासा करता है। आत्मा की छाया अमृत के समान है यस्य इसको जानकर ही मृत्यु से परें चले जाते है। जो आत्रमा को जानते है उनको किसी और देवता की किसी प्रकार की साधना नहीं करनी पड़ती है। या जो आत्मा को जान लेता है वह और किस देवता की उपासना करें हबी देकर अर्थात अपनी आत्मा को जागृत करना है और सब कुछ वयर्थ है। आत्मा का समबन्ध अन्तर्जगत से है। बाहरी जगत तो मात्र आत्मा की छाया मात्र है।
  एक बार राम कृष्ण परमहंस एक गावं में पहुंचे वहां एक घर के सामने उन्होंने एक बच्चे को रोंते हुए देखा। वह बच्चा अपनी परक्षाई को पकड़ना चाहता था और वह अपनी परक्षाई को पकड़ नहीं पा रहा था। क्योंकि वह अपने हाथ आगे उठा कर के बार-बार परक्षाई को पकड़ने के लिए आगे बढ़ता और हर बार उसकी परक्षाई उसके हाथ से आगे निकल जाती थी। यह देख कर उसकी मां भी काफी चिन्तीत थी की वह क्या करें? अपने बेटे को कैसे समझायें? रामकृष्रण ने जब देख3 तो वह समझ गये मां और बच्चे दोनो की परेशानी उनको समझ में आगई। उन्होंने तुरन्त बच्चे का हाथ पकड़ कर उसके सर पर रख दिया और उस बच्चे का हाथ जब अपने सर पर पड़ा तो उसकी परक्षाई उसके पकड़ में आ गई और बच्चा बहुत खुस हुआ।
   कहानी का अर्थ इतना है कि यदि आत्मा को जानना है तो वह स्वयं के अन्दर ही पकड़ी या जानी जा सकती है। उसके वाद ही हा सब उसको अपने बाहर भी पकड़ या जान समझ सकते है। लोग कहते है कि आत्मा प्रत्येक कड़ में व्याप्त है। ऐसा वेद भी कहते है और यह एक शाश्वत अपरिवर्तनिय सत्य है। लेकिन वह तब तक नहीं देखी जा सकती है जब तक उसको हम सब अपने अन्दर नहीं देख लेते है क्योंकि जब आत्मा हम उसको अपने अन्दर पहचान लेते है तभी हम अपने बाहर भी सभी में देख या पहचान सकते है। जिस प्रकार से यदि किसी स्त्री प्रेम किया है तो हम दूसरी स्त्री से भी आसानी से प्रेम कर सकते है प्रेम दो शरीर के मिलन को नहीं कहते है यद्यपि प्रेम दो आत्माओं के मिलन को कहते है। परमात्मा को उपलब्ध प्रेम एक शसक्त माध्यम है। जैसा की कवीर कहते है कि पढ़त-पढ़त जग मुआ पंडीत हुआ न कोई ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडीत होय। अन्यथा प्रेम क्या है उससे हम सब अनभिज्ञ रहते है। प्रेम का सिर्रप ढोंग ही रहा है आज सम्पूर्ण संसार में और उसी को प्रेम समझा जा रहा है। क्योंकि ढोंग करना सरल है। दूसरा मंत्र कहता है ईसमें ही साम, यजु, अर्थव, और ऋग है। यह सब आत्मा से ही निकलते है। ऋगवेद का मतलब है जितने भी प्रकार का ज्ञान है वह सब ऋगवेद में है जो सबसे प्रचिन है। जो आत्रमा की बी उत्पत्ती है। यजु का मतलब है जितने प्रकार के कर्म है और कर्मकाण्ड की जितनी भी संभावना है वह सब यजुर्वेद में है। साम अर्थात जितने प्रकार के गायन या संगीत से संबन्धीत ज्ञान है वह सब सानवेद में है। अथर्ववेद अर्थात विज्ञान के प्रत्येक विषय का संग्रह है। जो सब आत्मा से ही आया है। आगे मंत्र कहता है। जिस प्रकार से रथ होता है और उसमें धुरा जुड़ा होता है उसी प्रकार से यह सभी वेद भी जुड़े है।
   विश्वायुर्धे ह्यक्षितम्। मनुष्य को हमेशा इस प्रकार से रहना चाहिये जिससे शरीर, मन, आत्मा को किसी प्रकार का कष्ट ना उठाना पड़े, अर्थात प्रेम और सद्भावना पूर्वक रहना उचीत है। स्वयं और दूसरें प्राणियों के लिए अवने जैसा व्यवहार करना चाहिए। ये सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान का जो श्रोत है वह सब हमारे तन शरीर में जो मन है उसके साथ हम सब का मन शिव संकल्प वाला हो। अर्थात परमात्मा में लगा रहें, नही तो यु मन बहुत खतरनाक रूप धारण कर लेता है और तब इसको सही मार्ग पर लाना बहुत कठीन हो जाएगा। क्रयोंकि इसके पास अद्भुत शक्ति का भण्डार है। मन जिसका दुरप्रयोग करेगा जैसा कि आज मानव मन कर रहा है। स्वयं का सर्वनाश। आत्रमा की महानता को इतनी आसानी से समझ जाए तो एक आश्चर्य ही होगा। अन्तःप्रज्ञा का तात्पर्य है अपना आन्तरीक शक्तियों को जाग्रत करना और उनको अपने जीवन में उपयोग करना और जीवन को उससे सम्पन्न कर लेना , जिसे ऋतम्भरा भी कहते है अर्थात जब आपकी प्रज्ञा बुद्धि ऋत शाश्वतत्ता से भर जाती है। उसे अन्तःप्रज्ञा कहते है। यह अन्तःप्रज्ञा दो शब्दों को आपस में जोड़ कर बना है अन्तः अर्थात आन्तरीक इन्टर्नल जो शक्तियां है। दूसरा शब्द प्रज्ञा है जिसका अर्थ है प्र अर्थात जो पहले से उपलब्ध या विद्यमान है। ज्ञ का अर्थ है ज्ञान जो जानने योग्य है जैसा की लोग कहते है कि फला बस्तु ज्ञ है और फला बस्तु अज्ञेय है। जिसको जितना भी जान लिया जाया वह कम ही है या उसको पूर्णतः जान पाना दुर्लभ, मुस्किल ही नहीं असंभव है। यहा प्रज्ञा का तात्पर्य है जो ज्ञान पहले से ही उपलब्ध या विद्यमान है। ज्ञान का मूलभुत आधार सद्गुण अर्थात विर्च्यु है। अब सद्गुण क्या है इसका उत्तर पतञ्जली देते है।
   मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त्प्रसादनम्।। अर्थात यह सब प्रसाद की तरह है स्वयं में इतनी क्षमता का होना जिससे स्वयं के सामने आने वाली समस्यायों का सामना समाधान कर सके और स्वयं के शत्रुओं से जो आन्तरीक है। बाहर तो कोई शत्रु है ही नहीं उनको हम सब अपनी कल्पना से पैदा कर लेते है यहां पर आन्तरीक शत्रुओं की बात हो रही है। जो मानव का सबसे बड़े और भयानक शत्रु है जिसकी बाहरी किसी भी शत्रु से तुलना नहीं किया जा सकता है जिसमें सबसे पहले अहम् का नम्बर आता है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, शोक, भय, प्रमाद, आलस्य, ईर्स्या, जलन, घृणा, मद जिनका दमन करना पड़ता है जिस प्रकार से एक राजा का कार्य होता है वह अपने देश और राज्य को बाहरी आताताई ताकतों का दमन करता है और अपनी जो आन्तरीक मानसिक वृत्तियां है उनको उठने से पहले ही उनके सर को कुटल देता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, यह सारें उर्जा के प्रवीह के नाम है। इसमें जो सबसे प्रमुख काम है जिसके लिए गीता में कृष्ण कहते है।
ध्यायतो विषयान्पुसः संग्ङस्तेषपजायते।
संग्ङात्सज्ञायते कामः कामत्क्रोधोभिजायते।।
क्रधाभ्दवित सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशत्यप्रणश्यति।।
  विषयों के चिन्तन करने वाला मन पुरुष की उन विषयों में आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। काम की तृप्ती न होने से या फिर बिध्न पड़ने सो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मुढ़भाव उत्पन्न हो जाता है और मुढ़भाव से स्मृत्ती में भ्रम पैदा होता है। स्मृति में भ्रम होने से बुद्धी का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से पुरुष अपने स्थिति से गीर जाता है उसका पतन हो जाता है। इसके बाद तो वृत्तियों का प्रारम्भ होता है। यह काम सबसे प्रमुख है सबसे पहले मन में किसी वस्तु को पाने कि तमन्ना कामना उपस्थित होता है फिर उसे पाने के दो रास्ते है अक सरल और दूसरा कठीन है। जैसा की अर्जुन के सामने दो प्रकार के मार्ग है एक तो वह युद्ध नहीं करना चाहता था वह युद्ध से भागने की इच्छा रखता था, और दूसरा मार्ग कठीन था जिसके लिए ही महात्मा योगेश्वर कृष्ण उसके लिए गीता में उपदेश कर रहें है और अर्जुन को युद्ध करने के लिए तैयार कर रहें है। इसको वह ज्ञान का मार्ग कहते है। जो मार्ग सरल है उस पर ज्यादा से ज्यादा लोग चलना चाहते है जो मैदान छोड़ कर भागने का मार्ग है। क्रयोंकि लोग अपने लक्ष्य को जल्दी से जल्दी प्राप्त करना चाहते है। लेकिन इसमें एक समस्या भी आती है जिसमें बहुत जल्दी स्वयं के नाश की सम्भावना भी बढ़ जाती है। जैसा कि कहा गया है कि जल्दी का काम शैतान का काम है। उसमें कुछ ना कुछ उसमें कमिंया अवश्यमेव रह ही जाती है। जिस प्रकार से लोग जल्दी से जल्दी अमीर बनना चाहते है उसके लिए भले ही उसको ऐसे मार्ग पर चलना पड़े जो सार्टकट जो उसके योग्य नहीं है। जैसे कि कोई नेता या मंत्री होते है। वह ऐसा घोटला करता है कि उससे उसके सात पुस्ते आराम से जीवन बिता सके, लेकिन होता इसके बिपरीत है। क्योंकि जो बस्तु बिना परीश्रम के द्वारा कमाया जाता है। उसके लिए बिशेष ध्यान दिया जाता है। तुम सब स्वयं देख सकते हो। कि लोग अपने-अपने घरों में पानी विसलरी का वाटर खरीद कर लाते है और उसका बड़ा सद्उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ किसी नदी को देखें तो यहीं लोग उसमें दुनीया भर कुड़ा, करकट, मल, मुत्र, गन्दगी, मलबा, भयंकर बिशैली गैसे केमिकल बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के डाल कर उसको प्रदुषित करते है। अपने निजी स्वार्थ के वशीभुत हो कर इनको यह ज्ञान नहीं ऐसा नहीं लोग सब कुछ जान कर ऐसा करते है। यह पानी कितने जीव, जन्तु, प्राणीयों के लिए आवश्यक है। फिर भी उसका यह सब लोग मिल कर उसका सर्वनाश कर रहें है। क्योंकि यह सब होस में नहीं है यह सब अपनी बेहोसी में ही कर रहें है। इन सब पर काम सवार हो गया है जिसकी बात कृष्ण कर रहें है।      
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्रमफलप्रदाम्।।
   काम जो किसी का नमों निसान मिटाने के लिए परयाप्त है अब दिल्ली की जमुना को ही देख लें  उसका अस्तित्त्व ही खतरें में आगया है और इसके विपरीत यदि इसको प्रदुषण से बचाना है तो बड़े-बड़े जुर्माने को लगा दे तो वह बच सकती है। यह दमन का एक तरीका है।      
   इन्द्रं पृच्छ बिपश्चितम्। अज्ञान को दूर या नष्ट करने वाले ज्ञानी विद्वान से पूछ-ताछ कर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहिए। जब किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना है तो बहुत सावधानी पूर्वक यह कार्य करना चाहिए। उस समय यह भी देकना चाहिए की जिस से हम ज्ञान लेने के लिए चले है वह इस योग्य भी है कि नहीं। वह हमारें अज्ञान को नष्ट कर के उसके अस्थान पर जिस बिषय का ज्ञान दे सके, और परमात्मा ही सब का गुरु है।
   यह तो सरलता की बात है। एक कठीन कार्य भी है जिसकी तरफ लोग आज बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते है। क्योंकि लोगों के पास विचार करने की क्षमता का हरास हो गया है। जो यह जानता है की परमात्मा उसको देख रहा है तो वह सार्टकट का मार्ग नहीं पकड़ता है। वह अपनी कामनाओं की कामना का दामन करके जो उसके जीवन कि सबसे प्रमुख परमात्मा कि शरण में रहने के सिवाय कुछ नहीं जानता है। क्योंकि परमात्मा तो अन्तर्तम में उपस्थित है और वह उसकी सारी जरुरतों को समझता है उसकी पुर्ति भी करता है। जैसा की पतञ्जली कहते है निर्विचारवैशारद्यअध्यात्मप्रसादः। अर्थात जो परमात्मा की साधना में लग जाता है स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित करता है। आत्मनेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।  जो आत्रमा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस दशा में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। उसका परमात्मा स्वयं ध्यान देता है साधक का इतना सा अर्थ है कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करता है और संयम को धारण करता है यह संयम दमन का पर्यावाची है।
   दमन का यह अर्थ नहीं है कि वह उनको बांधता है यद्यपि वह सिर्फ देखता है स्वयं का जो हस्तक्षेप अपनी इन्द्रियों और मन के साथ होता था उसे वह रोक देता है या वह उनसे तदात्म नहीं जोड़ता है। वह देखता है जो बी घटना शरीर में घटती है जिसमें संयम आ गया उसके जीवन में सिद्धयां स्वयं आ जाती है। उसके लिए किसी प्रकार के सार्टकट के मार्ग कि कोई आवश्यक्ता नहीं पड़ती है और यह धर्म का एक प्रमुख चरण है।    
   अस्तेयप्रतिष्ठायामं सर्वरत्नोंपस्थानम्।
  जब अस्तेय कि प्रतिष्टा किसी के जीवन में हो जाती है तो उसको सर्वरत्नों की उपलब्धी होती है।
   मुख्य रूप से तीन तरह के लोग होते है जिनकी संख्या सबसे अधीक है वह सब ऐसे लोग है जो बिना विचारें ही अपना प्रत्येक कार्य करते हैं। वह अपना सारा कार्य अपनी वासना के वसी भुत हो कर ही करते है। काम अर्थात सैक्स का भुत चढ़ा तो सैक्स में लिप्त हो गये। क्रोध की वासना चढ़ती है तो उसमें लिप्त हो गये, लोभ की वासना सवार हुई तो उसपे सवारी कर लिया, भय कि वृत्ती ने स्वयं के उपर सवारी कर ली तो उसके साथ हो लिए, और ऐसा ही शोक दूसरी वृत्तियों के साथ भी होता है।
   मतलब यह सब मुख्य बृत्तियों के दास के सामने होते जिनका शोषण सबसे ज्यादा इस पृथ्वी पर होता है। इस तरह के लोगों को कौड़ीयों के दाम बेचा जाता था कुछ समय पहले तक जिन्हें दास के प्रथा के नाम से जानते है। सैक्स से पिड़ीत होते है तो सैक्स करते है पशु कि तरह उसमें रत हो जाते है यह लोग प्रायः मजदूर किस्म के होते है जो सारें विश्व का कार्य करते है। रोड बनाना फैक्ट्री मील में मकान पुल बड़ी-बड़ी इमारतों को बनाने में कार्य करते है। इनके पास मनोरन्जन के लिए सिवाय स्त्री के शरीर को नोचने के और दूसरा कार्य नहीं होता है। दूसरें वह होते है जो विचार करके अपने प्रत्येक कार्य को करते है यह लोग केवल विचार ही करते है इसमें स्वयं का स्वार्थ निहीत है और यह स्वार्थ सिर्फ भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए किया जाता है जिसमें रजनेता, अभीनेता, व्यापारी, और सरकारी सेवाओं में जो अधीकारी पद पर लगे है। यह प्रायः उसी प्रकार की वासना का शिकार है। लेकिन यह शभ्य इसलिए कहे जाते है। क्योंकि इनको स्वयं के जीवन के बिकार को छुपाना आता है यह सब नकली लोग होते है। जो कहते कुछ है और कहते कुछ और है। यह सब अवसरवादी लोगों की तरह होते है। यह कहते है कि तुम भी ठीक हो और मैं ङी ठीक हूं यह सब को ठीक कहते है। अपने स्वार्थ फायदे की बात ही इनको समझ में आती है। इनका विचार उथला-उथला होता है सागर कि लहरों कि तरह इनको जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं होता है। ना ही यह जीवन की कोई अनुभूति ही रखते है। यह सारी की सारी यात्रा सिर्फ लहरों में ही करते हैं। मन को प्रसन्न करना ही इनका मुख्य सिद्धान्त है यह सब पश्चिम जगत के समर्थक है।
   इनके पास भाव नहीं है ना ही भाव को समझना ही इनके सामर्थ्य की बात है। स्वार्थ दो प्रकार के होते है। पतञ्जली भी स्वार्थ की ही बात कर रहें है लेकिन वह परम स्वार्थ की बात करते है। लेकिन जिसकी बात पतञ्जली कह रहें है इसको तीसरी तरह के जो लोग है वहीं समझते है। दूसरे वह है जो सणयन्त्रकारी है अनका विचार क्रान्तिकारी होता है। वह सिर्रफ विचार ही नहीं करते यद्यपि भाव की गहराई में उतरते है वह ध्यान पर सवार होते है उनके लिए ही यह धर्म सुत्र है। अस्तेय का मतलब स्वच्छता, पुण्यता, और निर्दोषता, निर्विचार भाव की गहराई में स्थित हो कर चिन्तन करना मनन करना प्रति पल जीवन के प्रति एक वाचमैन कि तरह जिस प्रकार से वाच मैंन प्रत्येक आने-जाने वालो पर नजर पर रखता है जिस तरह से सी-सी कैमरें कार्य करते है। वह जहा भी होता है हर आने-जाने वालों पर नजर रखता है और उसकी बाद में मनोवैज्ञानिक विष्लेषण किया जाता है किसी अपराधीयों को पकड़ने का कार्य किया जाता है। जबकी जो साधक होता है वह अपने स्वयं शरीर और मन इन्द्रियों पर इसी प्रकार से नजर रखता है। अश्रतेय का मतलब है चोरी करने के लिए किया जाता है। और चोरी भी दो प्रकार होती है। एक भौतिक होती है और एक मानसिक या आध्यात्मिक होती है।   
   सबिता स्तोम्म नु नः। केवल परमात्मा की स्तुती करने योग्य जिसने इस जगत को बनाया है, और इसमें निवास कर के बिचरण कर रहा है। वह स्वयं में भी हर पल रम रहा है या शांसे ले रहा है।
   भौतिक चोरी से बचना सरल है मगर मानसिक आध्यत्मिक चोरी से बचना कठीन ही नहीं असम्भव है। जो लोग भौतिक वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाते है लेकिन वह उस वस्तु पर मानसिक रूप से अवश्य अधीकार कर लेते है। मान ले कोई व्यक्ती किसी स्त्री को भौतिक रूप से नहीं प्राप्त कर पाता है तो वह उसको मानसिक रूप से वह लोग अवश्य सा्रभोग कर लेते है या फिर जो लोग काजोर, कायर, डरपोक किस्म के स्रत्री स्वभाव के होते है। मानसिक रूप से अपने शत्रु को नुकसान पहुचाते है या चोरी करते है। अस्तेय आन्तरीक जगत को स्वच्छ रखने की बात कहता है।
   एक अच्छा उदाहरण अस्तेय का उपनिषद् में मिलता है। दो भाई होते है, और वह दोनो ऋषि होते है, और दोनो का अपना-अपना आश्रम भी होता है एक बार छोटा भाई बड़े के आश्रम में चला जाता है, और उस समय उसके बड़ा भाई के वहां नहीं रहता है। उनकी गैर मौजुदगी में वह छोटा भाई अपने बड़े भाई के आश्रम के बगीचे से फल को तोण कर खा लेता है। जब उसके बड़े भाई आते है तो वह उनसे कहता है कि उसने उनके आश्रम के बृक्षों में से उनके ना रहने पर फल तोड़ कर खा लिया है।
  उसके भाई ने कहा यह तो अस्तेय चोरी किया है तुम ने। इसके लिए तुमको दण्ड अवश्य लेना चाहिए। अपने बड़े भाई की बात को सुन कर वह छोटे भाई ने कहा आप मुझको इसके लिए दण्ड दे दिजीये। उसके भाई ने कहा की दण्ड देना तो राजा का काम है और दण्ड के लिए तुमको राजा के पास जाना चाहिए।    यह सुनकर छोटा भाई तुरन्त राजा के पास गया और अपने अपराध के लिए जिद करके दण्ड लिया जिसके फलस्वरूप उसके दोनो हाथों को काटवा लिया गया था। यह अस्तेय की महीमा है। आज इस तरह कि कल्पना करना भी असम्भव है यहां तो इसके लिए बाकायदा प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन जो धर्म को जानते है। वह जथा शक्ति सम्रभव हो इससे स्रवयं को दूर ही रखते है।
   प्रचिन काल की बात है एक राजा ने रास्रते के मध्रय़ में एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा रख कर स्वयं वह छुप गया एक बड़े पेड़ के पिछे जो सड़क किनारें पर था। वह जानना चाहता था कि क्या उस पत्थर को कोई रास्ते हटाता है या नहीं। बहुत से उस राजा के राज्य दरबारी और उसके व्यापारी, कर्मचारी आए और उस पत्थर को एक तरफ से निकल गए। किसी ने भी उस पत्थर को वहां से हटाने का किसी ने भी जरा प्रयास नहीं किया यद्यपि लोगों ने भी उस जोर-जोर बोल कर उस राजा को ही ठहराते हुए कहा कि यह राजा सड़क को साफ नहीं रखवाता।





   कुछ समय के बाद उसी सड़क से एक गरीब किसान गुजरा जब उसने रास्रते में बड़े पत्रथर के टुकड़ें को देखा तो उसने अपने सर पर जो एक बड़ा गठ्ठर रखा था उसको किसी तरह से बड़ी मुस्किल से निचे उतार कर एक तरफ रख दिया। उस पत्थर को रास्ते से एक तरफ करनें के लिए जोर लगाने लगा और थोड़ी देर में किसी तरह से उस पत्थर को उठाया तो उसको उस पत्थर के निचे एक बटुआ मिला जब उसने उस पर्स को खोला तो उसमें सौ स्वर्ण मुद्रायें थी उसके साथ एक पत्र भी था जिसमें यह लिखा था की जो भी कोई इस पत्थर को रास्ते से हटायेंगा यह स्वर्ण मुद्ररा उसकी हो जाएगी। साथ में राजा के कोष का प्रतिक चिन्ह भी उस कागज पर था।  रोड के एक तरफ कर दिया। उसके बाद उस गरीब किसान ने अपने सब्जी के बोझ को फिर से उठा कर अपने सर पर रख लिया और अपने घर की तरफ चल पड़ा।
   उस किसान ने वह सब कुछ सिख लिया जिसको हम सब में से बहुत कम लोग सिख पातें है। प्रत्येक कठीनाई की उपस्थिति अपने लिए एक अवसर है। अपनी दसा स्थिति को सुधारने का।    
   इस पृथ्वी पर जो सबसे अधीक बदनाम है और भ्रमित करने वाला विषय प्रेम है। प्रेम कि ब्याख्या सिवाय शारीरिक सम्बंध बनाने से अधीक नहीं है।  

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