शुक्रवार, 4 मार्च 2011

अहम् इन्द्रं न शरीरंम्

 अहम् इन्द्रं न शरीरंम्

द फ्राग्रेन्स आँफ मिस्ट्रियश एडीफिकेसन












आचार्य मनोज

















बिषय सूची
भुमिका
1 त्रैतवाद साक्षी ऋतं बदिष्यामि।।
2 शून्य की नाव भाव कि जिज्ञासा।।
3 अहम् इन्द्र न शरीरमं आत्मदर्शन।।
4 भष्मान्त शरीरं ज्ञान की पराकाष्ठा।।
5 ज्ञान ईश्वरों ज्ञेयो योनीः कारणमुच्यते।।
 6 विज्ञानं यज्ञं तनुते, कर्मादि तनुतेपि च।।
7 अज्ञान युयोध्यस्यमज्जुहूराणमेनो।।
8 अन्तः प्रज्ञा यज्जोतिरन्तरमृतं प्रजासु।।
9 सुर्यआत्मा जगतस्तथुषश्च सर्वज्ञ।।
10 मनुर्भवः जनया छायामृतं।।
11 कालो अश्वोवहति सप्तिरश्मिः।।
12 कामविपश्चितस्य चक्रा भुवनानि विश्वा।।
13 राम संसाररस्य मृत्युवाच्यब्रह्मोपासना।।
14 संभोगः समुद्र एवास्य बन्धुः समुद्रयोनि।।
15 मनुष्य ऋष्यश्चय समुद्रः परमात्मा।।
16 धर्म यज्ञयस्य ईदमिन्द्राय-ईदं न मम।।
17 ब्रह्मसाक्षात्कार अयं त ईध्म आत्मा।।

न में द्वेषरागौ न लोभो न मोहो मदो नैव मात्सर्य्यमान्।
न धर्मो न चार्थे न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवहं शिवहम्।।1।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मंत्रो न तीर्थो नवेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता श्चिदानन्दरूपः शिवहं शिवहम्।।2।।
                 न में मृत्युशंङका न में जातिभेदः पिता नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैंव शिष्य श्चिदानन्दरूपः शिवहं शिवहम्।।3।।





भुमिका


    मैंने ऐसी किताब लिखने का निर्णय क्यों किया? यह सबसे पहला प्रश्न आप सबके दिमाग में गुंजता होगा। मैं बहुत ज्यादा तो नहीं जानता हूं। लेकिन जितना जानता और समझता हूं वह अपने आप में अद्वितीय है। मैंने यह किताब छापने के लिए एक प्रकाशन के मालिक से बात की तो उसने पहले जबाब ही दे दिया, बाद में मैंने एक दूसरे प्रकाशन के मालिक से बात की तो उन्होंने कहा की आप कहना क्या कहना चाहते हैं? अपने किताब के माध्यम से उसको आप सार रूप में कुछ एक पेज में ही लिख कर मेल कर दीजिए। मैंने काफी विचार किया कि मैं क्या लिखू? जो कुछ एक पेज में आ जाए और उसमें किताब का सार भूत सम्पूर्ण निचोण भी आ जाए, उसी समय मेरे मन में विचार आया कि मैं क्यों ना इस किताब की भुमिका को लिखूं जो कुछ एक पेज में आ जाए और जो अब तक नहीं लिखा है। तो इस तरह से इस किताब की भुमिका को मैंने इस लिखना प्रारम्भ कर दिया। लेकिन जो मुख्य प्रश्न सभी लोग करते हैं। वही प्रश्न आप सब के मन में भी उठ रहा होगा कि ऐसा क्या है? जो इस किताब में है इसका उत्तर मैं कुछ ही शब्दों में ही दे सकता हूं। वह शब्द है इसमें सत्य के रहस्य और उसकी खुशबू मात्र है, जैसा कि मैंने अपनी किताब का उप शीर्षक रखा है। आज तक जो भी ज्ञान, विज्ञान, ब्रह्मज्ञान के द्वारा जाना गया है। जिससे मानव को परमानन्द की अनुभूति हुई है। उसकी खुशबू के रूप में मैंने इस किताब को तैयार किया है। मानव आत्मा को सम्पूर्णता की अनुभूति कैसे हुई? और वह स्वयं के जीवन को परमानन्द में कैसे बदलता है? और इसमें कुछ भी नया नहीं है। जो भी है वह बहुत पुराना है इतना पुराना है कि लोगों के सामने, वह जब आ कर खड़ा हो जाता है तो लोग उसको पहचाने से इन्कार कर देते है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि वह कौन है? जिसे हम सब पहचानने से इन्कार कर देते है, या फिर इस दुनिया ने अस्वीकार कर दिया है। वह स्वयं का अस्तित्व है, और जो भी इस अस्तित्व के पक्ष में खड़े होते है उनको इस दुनिया ने तब तक नहीं स्वीकार किया जब तक वह शरीर साथ थे जब वह बिना शरीर के होगए तो उनके नाम की माला जपने लगे, और उनके नाम से पाखण्ड फैलाकर उसको धर्म का का नाम दे दिया, धर्म को मैं नहीं जानता हूं। ना मैं धर्म की बातें ही करता हूं। मैं स्वयं को जानता हूं और उस स्वयं को जो भी जानता है वह मेरा मित्र, सखा या मेरा अस्तित्व है और मैं उसी की बातें कर रहा हूं। मैंने इस किताब के माध्यम से सिर्फ यह कहने का प्रयास करने का प्रयास किया है कि जो तुम स्वयं, देखते, सुनते, जानते, मानते, समझते, हो वह तुम नहीं हो, तुम एक ऐसे सम्राट हो जो सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड का स्वामी है, तुम्हारे अन्दर अद्वितीय अद्भुत खजाना और उस पर कैसे पुनः फिर से अपना अधिकार कर के स्वयं को पूर्ण कर सकते हैं। जो मार्ग जीवन और मृत्यु से परे जाने का है, वह कौन सा मार्ग है? मैं मृत्यु के अन्दर किस तरह से प्रवेश करते उसकी बातें कर रहा हूं जो अमृत का द्वार है उस पर चिन्तन, मनन, निधीध्यासन और ध्यान में उतरने उसका जीवन में प्रयोग करके जीवन की सम्पूर्णता की उपलब्धी करने के लिए जो परम आवश्यक महत्त्वपूर्ण चरण हैं उसपर विचार के साथ कुछ सहज प्रयोग करने के लिए प्रेरित कर रहा हूं। जैसा कि सदगुरुओं ने मुझसे पहले भी ऐसा कार्य करने में ही अपने जीवन शरीर की सम्पूर्ण प्राण उर्जा चुका दिया है। क्योंकि वह जीवन की समग्रता, सम्पूर्णता और सहजता के साथ उसकी परीपूर्णता में स्वीकारतें है और मैं उनको पसन्द करता हूं। मृत को अमृत कैसे कर दिया है उन लोगों ने जिनको मैं जानता हूं। उस मार्ग पर चलने की बात मेंरे द्वारा की जारही है। मानव मन को मानव मन से मुक्त करके उसकी चेतना में कैसे तटस्थ किया जा सकता है? उसके बारें में मैं बातें कर रहा हूं। मैं मानव को परमात्मा से एक करने कि बात करता हूं। जो आत्मा से परे है इसका मतलब यह नहीं है की मैं परमात्मा को जानता हूं। मैं उसकी बातें करता हूं जो मानव आत्मा से परे है और परमात्मा मानव शरीर के अन्दर है उसके सम्पूर्ण साम्राज्य का मालिक मानव है, वह नहीं जानता है स्वयं को भूल गया है कीड़े-मकौड़े से ज्यादा स्वयं को नहीं जानता है स्वयं को नहीं समझता है, ना मानता है। उसको फिर से याद दिलाने के लिये आवश्यक हो गया मेरे लिए की मैं इस किताब को लिखुं और वह संदेश उस अस्तित्व तक पहुंचा दु, जो इसके लिये प्यासे है। मैं कहना चाहता हूं कि मानव जमीन पर रेंगने वाला किड़ा नहीं है, वह अद्वितीय अदृश्य पंखों वाला ब्रह्माण्ड का स्वामी है। उसके पास एक अदृश्य शक्ति समपन्न अद्भुत खजाना है, उसी तरह से जैसा कि एक फकिर था जिसका कटोंरा कभी भरता ही नहीं था उसमें कुछ भी डाल दिया जाता और वह अदृश्य हो जाता था ऐसा ही स्वयं के अन्दर भी एक अदृश्य खजाना समाया है जो कभी भी रीक्त खाली नहीं होता है। उसमें से कितना ही खर्च करों वह और बढ़ता ही जाता है। उसी खजाने कि चाभी यह किताब है मानव जीवन में जो अज्ञान रूपी अंधकार है जो अभी श्राप की तरह से उसके खुन को चुस-चुस कर उसको मार रहा है। तरह-तरह के विचारों के पाखंण्ड, सिद्धान्त और मान्यताओं से परे जो प्रकाश देने वाला सुर्य है उस सुर्य के उपर जो हजारों जन्मों की धुल जम गई है। उस धुल को कैसे साफ कर सकते है? उसकी ही बात इस किताब में कि जारही हैं। उस दिपक में जो तेल खत्म हो गया है उसमें तेल कैसे भर करके पुनः उसे जला कर अपने जीवन से सदा-सदा के लिये अन्धेंरे को दूर करने कि बात मैं इस किताब के माध्यम से कर रहा हूं। यह किताब मानव मात्र के उपकार और सहायता के लिए लिखी गई है। मैंने उन सब का उपयोग किया है जो मानव को महामानव बनाने के लिए और उसके जीवन को परमानन्द में रूपान्तरीत करने की बातें करते है, चाहे वह आत्मज्ञानी हो, विज्ञानी हो या वह ब्रह्मज्ञानी हो, क्योंकि मैं एक वैश्विक मानव हूं और सम्पूर्ण विश्व के मानव ने जो भी आज तक कमाया या प्राप्त किया वह सब हमारे उपयोग के लिए ही संचित किया गया है, और वही कार्य मैंने किया है। तो मैं मानव में जो पहले से बीज रूप में विद्यमान, अज्ञान, ज्ञान, विज्ञान, अर्न्तज्ञान, ब्रह्मज्ञान है। उसको फिर से भुमि कैसे उपलब्ध कराकर उसको पूर्ण रूपेण विकसीत करके उसके फलों का स्वाद रस लेकर स्वयं को परम तृप्ति सदा-सदा के लिये कर पायें, और अतृप्ति के भव सागर में जो डुब-डुब कर मर रहे है, जिनकी सांशें घुट रही है उनके लिये यह अमृत बाण, अमृत रस, अमृत का दरवाजा बनें यही मेरी कामना है। जिस तरह से मेरे जीवन में प्रकाश, ज्ञान, अमृत, आनन्द के फुल खीलें, मैं मृत्यु में डुब रहा था उससे पार जाने का ध्यान रूपी अमृत द्वार मैनें पाया, उसी तरह से सभी को वह अमृत मार्ग उपलब्ध हो यहीं मेरी कामना है। मैं अपनी बात उपनिषद् के एक श्लोक के माध्यम से कहना चाहता हूं वह है असतो माँ सद्गमय अर्थात असत्य से सत्य की ओर और तमसो माँ ज्योर्तिगयं, तम अर्थात अंधकार, अज्ञान, पाखण्ड से प्रकाश कि ज्योती आनन्द की तरफ, मृर्त्यु माँ अमृतगमय। मृत्यु से अमृत की तरफ चलने कि अतृप्ति से तृप्ति की ओर जाने का मात्र निमंत्रण है। जो इसके लिए तैयार है वही इसे समझ सकते है। इस किताब को मानव मन से जो परे है उसको केन्द्र या ध्यान में रखकर निर्माण किया गया है। इसके द्वारा किसी के मन को प्रताड़ित करने का प्रयास नहीं किया गया है, यदि कोई भी स्वयं को ऐसा महसूश करता है तो वह स्वयं मानव मन और मृत्यु के पंजे में फंसा हुआ है वह हाड़-मांस या मिट्टि का ढेर ही स्वयं को समझता है, और वह स्वयं को वास्तवीक रूप से नहीं जानता है। वह स्वयं को जाने यहीं इस किताब का मूल उदे्श्य है जैसा कि मैंने किताब के शिषर्क और सारे अध्यायों का नाम करण वेद और उपनिषद् से लिये है और कुछ नया अपनी तरफ से भी जोड़ा है। मूल किताब के शिर्षक का अर्थ है मैं शरीर नहीं हूं इसका स्वामी, राजा, सम्राट हूं। इस शरीर को ब्रह्माण्ड कहा गया है। यत पीण्डे तत् ब्रह्माण्डे, ऐसा वैज्ञानिकों का भी मानना है जो इस शरीर में है वही इस बृहद ब्रह्माण्ड में भी विद्यमान उपस्थित है अन्तर मात्र मात्रा का है जिससे रेत का एक कण बना है उसी से विश्व के विशाल पर्वत और हिमालय भी बना है इस तरह से यह सिद्ध हो रहा है कि जिससे मानव शरीर बनी है उसी से यह बाहरी बृहद ब्रह्माण्ड भी बना है, मैं वहीं बोल रहा हूं जो सिद्धों ने बोला है जैसा कि कबीर कहते हैं की मैं तो बांस कि बासुंरी हूं मेंरे द्वारा बोलने वाला तो कोई और है। बांस की बांसुरी तो खुद बोलती ही नहीं है उसको बजाने वाला मानव शरीर में अदृश्य आत्मा है जो फुंक पर फुंक मार रहा है जिसके द्वारा ही यह शरीर बज रही है। वेद का मंत्र साफ-साफ कह रहा है कि मैं शरीर नहीं हूं। इससे अलग इसका स्वामी इसका राजा हूं, अर्थात जितना मानव मन अपने शरीर को जानता है उतना ही उसके बाहर परमात्मा के ब्रह्माण्डिय शरीर को भी जानता है, और जो स्वयं को सिर्फ शरीर तक ही जानता है वही वैज्ञानिक है, लेकिन यहां पर जो बातें कि जा रही है उसे वैज्ञानिक भी नहीं जानते है। जैसा कि चाईना का सद्गुरु लाओत्सो कहता है मन को बस में करने का मतलब है की तुमने ब्रह्माण्ड को बस में कर लिया। आगे वेद स्वयं कहता है आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म, अर्थात तू स्वयं अमृत ज्योति रस से परीपूर्ण ब्रह्म है। 
   एक दिन एक युवा साधु अपनी यात्रा करते हुए एक नदी के किनारें आगया, और नदी बहुत बड़ी थी उसका पाट थोड़ा लम्बा, वह विचार करने लगा की किस तरह से इस नदी को पार किया जाये यह विचार करते हुए वही नदी किनारें बैठकर वह किसी नाव के आने का इन्तजार करने लगा। वह साधु बहुत समय तक नाव को देखता रहा शाम होने लगी और नाव कहीं नहीं दिखाई देरही थी। वहां नाव के आने की कोई सम्भावना भी नहीं दिखाई दे रही थी। ज्यों-ज्यों शाम होरही थी उसी तरह से धीरे-धीरे उसके सामने बहुत बड़ी कठिनाई आरही थी। उसको कोई समाधान नहीं दिखाई दे रहा था। तभी उसने सुर्य को अस्त होते देखा जिसकी सुनहरी लालीमा सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने आगोश में समेट रही थी। अचानक उसकी नजर नदी के दूसरें किनारें पर पड़ी तो वह देख कर आश्चर्यचकित हुआ। उस तरफ अपने समय का एक महान रहस्यदर्शी गुरु सम्मानित सन्त अपनी साधना में लिन थे। वह युवा साधु जब दूसरें किनारें पर बैठे हुए सन्त को देखा तो उसका कुछ हौसला बढ़ा और उसने बहुत तेज चिल्लाकर नदी के दूसरें किनारें पर बैठे हुए सन्त को बुलाया और उससे पूछा गुरुदेव क्या आप मुझे भी नदी के पार आने का कोई रास्ता बता सकते है।
   नदी के दूसरें किनारें पर बैठे हुए रहस्यदर्शि गुरु ने कुछ देर तक चिन्तन किया और उसको उपर से निचे तक देखते हुए कहा मेंरे पुत्र तुम तो पहले से ही नदी के दूसरें किनारें पर हो।  

आचार्य मनोज


।।त्रैतवाद साक्षी ऋतं वदिष्यामि ।।

ओ3म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योःमुक्षीय माऽमृतात्।।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भुयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेयं।।

  मैं अपनी बात को एक कहानी से आरम्भ करना चाहता हूं। एक बार कि बात है एक बहुत बड़ा मन्दिर दक्षिण भारत में था। उसमें सैकड़ों पुरोहीत कार्य करते थे। एक रात जो मुख्य पुरोहीत था, उसके स्वप्न में परमात्मा आया और उससे कहा की कल मैं तुम्हारें मन्दिर में आऊगा, तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार कर लिया गया है और परमात्मा अदृश्य हो गया। अगले दिन सुबह मुख्य पुरोहीत ने अपने और दूसरें सहयोगी पुरोहीतों से कहा की आज परमात्मा हम सब से मिलने के लिए आरहा है। उसके साथी जो दूसरें पुरोहीत थे उन्होंने कहा कि क्या बकवास करते हो कहां है परमात्मा? और उसका आना असम्भव है, क्योंकि परमात्मा नाम की कोई वस्तु है ही नहीं यह तो हम सब का पेसा या युं कहें की यह तो हमारा धन्धा या व्यापार है। हम सब यह अच्छी तरह से जानते है कि हमारी सारी प्रार्थना और उपासना तो केवल दिखावा है यह सब तो खाली आकाश में जाकर बिलीन हो जाती है। उस मुख्य पुरोहीत ने जिसके स्वप्न में परमात्मा आया था उसने कहा की मान लो यदि परमात्मा सच में ही आगया तो हम सब के लिये समस्या आ जायेगी, हमारा जाता ही क्या है? किसी तरह से वह सारे लोग तैयार हो जाते है और पूरे मन्दिर को साफ-सुथरा किया गया और सब तरफ से मन्दिर को खुब सजाया, सवांरा गया तरह-तरह के धुप अगरबत्ती फुल मालाओं से अलंकृत किया गया, और बावन प्रकार के सुस्वादु व्यनजन पकवान को तैयार किया गया। जब सब कुछ तैयार हो गया तब वह सारे पुरोहीत बैठकर परमात्मा के आने का इन्तजार करने लगे। दोपहर होगई और परमात्मा का कहीं कोई भी खबर नहीं आइ, तब मुख्य पुरोहीत ने अपने एक सेवक को बुलाया और उससे कहा कि तुम बाहर चौरास्ते पर देख कर आवो कि परमात्मा का कहीं कोई आने का पता है या नहीं। वह सेवक गया काफि दूर तक देख कर वापस आगया और उसने सूचना दी की परमात्मा का कहीं भी कोई अता-पता नहीं है। इन्तजार करते हुए अन्त में शाम हो गई धीरें-धीरें रात्री उतरने लगी और परमात्मा नहीं आया। जब सारे इन्तजार करते हुए निराश हो गये। तब सभी पुरोहीतों ने मिलकर मुख्य पुरोहीत का बहुत मजाक उड़ाया और बहुत बुरा-भला कहते हुए कहा अच्छा हुआ जो हमने गांव वालों को परमात्मा के आने का समाचार नहीं बताया, नहीं तो वह सभी गांव वाले हमरा सब का जीना मुस्किल कर देते और मिल कर हम सब को पागल समझते मजाक भी  उड़ाते और हमें मुर्ख कहते। इसके बाद में उन सब ने मिल कर भोजन किया जो परमात्मा के लिए बनाया गया था। उसके बाद सब अपने-अपने बिस्तर पर चले गए। मध्य रात्री को जब सारे पुरोहीत सोगए, तब एक पुरोहीत अचानक जाग गया और जोर-जोर से चिल्लाकर सभी को जगाते हुए कहने लगा की सभी लोग उठ जाओ जिस परमात्मा का हम सब दिन भर इन्तजार कर रहे थे वह आरहा है उसके रथ के आने की आवाज मन्दिर के बाहर से आरही है। तब दूसरें पुरोहीतों ने मिलकर उस पुरोहीत को बहुत डांटा और कहा मुर्ख सो जा कोई परमात्मा नहीं आ रहा है, यह आवाज तो बादल के गण-गणाने से आ रही है। फिर वह सभी सो गए, कुछ देर के बाद जब सभी सो गए तभी एक दूसरें पुरोहीत कि नीद खुल गई, और उसने कहा की कोइ जाकर दरवाजे को खोलें परमात्मा आ रहा है उसके कदमों की आहट आवाज आ रही है। फिर कुछ मजबुत पुरोंहीतों ने मिल कर उसको खुब डांटा फटकारा और कहा क्या तू हम सब को पागल समझता है क्यों हम सब से मार खाना चाहता है। दिन भर परमात्मा-परमात्मा कहता रहा और तेरा परमात्मा नहीं आया, अब जब जमिन पर हवा के चलने की और धुल-धुसर की आवाज आ रही है, जिसे तू परमात्मा के कदमों की आहट समझता है। तू तो महा मुर्ख है सो जा, इस तरह से फिर सारे सो गए। जब थोड़ा समय और गुजर गया तब एक पुरोहीत फिर जाग गया और उसने कहा अब मत सोओ क्योंकि परमात्मा सच में ही आ गया है। वह दरवाजा को खट-खटा रहा है। तब तो आश्चर्य ही होगया उन सारे पुरोंहीतों ने मिलकर उस पुरोंहीत की अच्छी पीटाई कर दी वह पुरोंहीत बुरी तरह से घायल लहु-लूहान होगया, तब मारने वाले पुरोंहीतों ने कहा कि यह तो खीड़की पर हवा के टकराने की आवाज आ रही है। उसके बाद एक बार फिर चद्दर डाल कर घोड़ा बेच कर सब सो गए। जब सुबह हुई तो जो मुख्य पुरोहीत था वह जब दरवाज खोल कर बाहर आया तो उसने देखा की सच में परमात्मा आया था उसके रथ के पहीये का निशान और कदमों के चिन्ह मवजुद थे यह देख कर वह बहुत आश्चर्य चकित हुआ, और अपनी छाती पीट कर फुट-फुट कर रोने लगा, उसको देख कर गांव वाले आ गये और उन्होंने पूछा क्या बात है? क्यों रो रहे हैं? तो उस पुरोहीत ने कहा की परमात्मा हमारें दरवाजे पर आ कर हमें बुला रहा था और हम सब घोड़ा बेच कर सो रहे थे, वह वापिस चला गया। ऐसा सिर्फ उन पुरोहीतों के साथ नहीं हुआ हम सब के साथ भी यही हो रहा है। हम सब भी सदियों से सोने के आदि हो गए हैं परमात्मा तो हम सब के हृदय में उपस्थित है और हम सब को हर पल बुला रहा है, हम सब सोने में ही जीवन को सार्थक समझते है। स्वयं को जगाने के लिये ही यह एक प्रयास है। परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा से यह शुभ और पवित्र दिन मुझे और आप सब को दिया हमारी योग्यता ही क्या थी? फिर भी उसने हम सब को हमारी योग्यता से कही अधीक दिया है, और हर क्षण बिना किसी स्वार्थ के दे रहा है। इस लिये सर्व प्रथम आदर, श्रद्घा, प्रेम और अहो भाग्य कृत्यज्ञता से भर कर उसको नमस्कार प्रणाम करते हैं। यहां इस भौतिक जगत में कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता है। हर वस्तु के पिछे हमारा स्वार्थ अवश्य होता है। वह स्वार्थ भौतिक, दैविक अथवा आध्यात्मिक हो सकता है यह निश्चित है, कि स्वार्थ मूल है, जैसा कि स्वामी तुलसी दास जी कहते है कि स्वार्थ लाई करई सब प्रिती सुर नर मुनि की यही है ऋति। अर्थात स्वार्थ के वसी भुत होकर ही यहां प्रत्येक मानव सुर अर्थात देवता मुनि भी इसी के वश में होकर ही प्रत्येक कार्य का सम्पादन करते है. हम सब के सभी कार्य में स्वार्थ मिला है वह कुछ भी हो सकता है। मानव और परमात्मा में यही मूल अन्तर है परमात्मा का स्वभाव है, सारा ज्ञान, विज्ञान, योग, भोग की सामग्री और सम्पूर्ण ऐश्वर्य निःशुल्क देता है बिना किसी स्वार्थ के वशीभुत हुए निश्वार्थ और निश्पक्ष भाव वह हम सब के साथ न्याय और अपनी दया को प्रकट कर रहा है। उसे भी हम सब नहीं देख सकते है उसमें भी कारण है। हमारा अज्ञान और अहंकार रोड़ा अटका कर खड़ा हो जाता है। फिर भी वह शाश्वत बिना कीसि भेद भाव के है, या युं कहे सब मुफ्त में ही दे रहा है उस पर सभी का किसी ना किसी तरह से श्रद्धा विश्वास अडीग है, और इसमें जो मानव मन का अहम् है। वही मूल कारण है उसका अज्ञान ही है जो दूसरों को दुःखी और तरह-तरह से परेशान करके स्वयं को उससे ज्यादा आनन्दित करने की तीब्र आकांक्षा दूसरें को कुचलने की प्रेरणा देता है और मानव मन उसी अहम् के कारण ही स्वयं दुःखी रहता है और दूसरों को भी दुःखी रखता है। यह सब क्यों हो रहा है इसके पिछे अपना ही अज्ञान है या युं कहे कि उसके अन्दर का जो परमात्मा है वह उसके द्वारा दबा दिया गया है, या उसने अपनी आत्मा जिसके पिछे से परमात्मा की आवाज आ रही है उसे उसने सुनना बन्द कर दिया है। जैसा की मन्दिर के पुजारी करते है सिर्फ मन्दिरों के पुजारी ही ऐसा नहीं कर रहे है उसी तरह से हम सब भी कर रहें है क्योंकि यह मानव शरीर परमात्मा का मन्दिर है और हम सब अपने हृदय का दरवाजा जाने कितने सदियों से बन्द करने में ही अपनी सम्पूर्ण प्राण उर्जा शक्ति को व्यय खर्च कर रहें है। यह एक प्रकार का सबसे बड़ा व्यापार, पेसा, व्यवसाय है जिसे सिर्फ मन्दिर के पुजारी ही नहीं कर रहे है यद्यपि हम सब भी यहीं कर रहें है आज के समय में पश्चिम जगत अपने चरम पर है यह एक अति है जिसकी वजह से उन सब का अन्तर्जगत सम्पूर्ण नष्ट हो चुका है पुरब भी उसके चपेट प्रभाव में आ चुका है इसका परीणाम मैडनेस पागलपनता कि मात्रा अत्यधीक तेजी से बढ़ रही है, और यह सब मिल कर सामुहिक आत्मघात, आत्महत्या की तैयारी में पूरी ताकत से जुटे है। इस सम्पूर्ण पृथ्वी को भौतिक स्वर्ग बना रहे है और यह सब जिस पदार्थ से बन रहा है वह सब बारुद का ढेर है जिससे यह सम्पूर्ण पृथ्वी राख में तब्दिल हो जायेगी जैसे कोयला जलने या भष्म होने के बाद होता है।
   एक बार कई धर्म के शास्त्रि पंडीतों का एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन एक सम्राट ने किया, उसको सुनने के लिए दूर-दूर से बहुत सारे लोग एकत्रित हुए जैसा की प्रायः हुआ करता है, वहां पर यह निर्णय होने वाला था कि परमात्मा कैसा है, और परमात्मा का स्वरूप कैसा है? जैसा की प्रायः होता है एक धर्म पण्डीत दूसरें धर्म के विचारों से कभी सहमत नहीं होते है। ऐसा ही उन सब में भी होने लगा, इसलिए ही यहां पृथ्वी पर सबसे ज्यादा लड़ाईयां और युद्ध धर्म को लेकर हुए है, और अभी भी गुरील्ला युद्ध हो रहे है। एक धर्म दूसरें धर्म को समापत्त करने के लिए अपनी पूरी ताकत को झोंक रहे है। इश्लाम का प्रचार और धर्मान्तरण, ईसाईयों का धर्रमान्तरण बरा-बर बहुत तेजी से हो रहा है। जिसके पास ज्यादा धन है उसी का धर्म ज्यादा फल फुल रहा है। आज ईसाईयत का राज्य करने के लिये ही इसके पिछे बहुत बड़ी मात्रा में धन और जीवन को व्यर्थ में खर्च किया जा रहा है।
  धर्म का जो शास्त्रार्थ हो रहा था उसमें किसी का निर्णय न होने की स्थिति में लोग बहुत अधीक निराश हुए, और उनमें जो कुछ बुद्धिमान लोग थे उन्होंने धर्म और परमात्मा के विषय में अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए महात्मा बुद्ध के पास गए, क्योंकि महात्मा बुद्ध उस समय अपने चरम पर थे अर्थात उनकी प्रसिद्धि बहुत थी।
   महात्मा बुद्ध ने उन वुद्धिजीवियों को पहले शान्त हो कर सुना और फिर अपने शिष्यों से कहा की एक अच्छा हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आवो। फिर वह एक मस्त तन्दुरुस्त हाथी और चार अंधे आदमीयों को लेकर आए, तब महात्मा बुद्ध ने उन अंधे व्यक्तियों से कहा कि जावो हाथी को देखों और यहां मेंरे पास आकर बताओ की हाथी कैसा होता है? पहले अंधे आदमी ने हाथी के पैरों को छुआ और उसने आकर कहा हाथी तो खम्भे की तरह होता है, और दूसरें अंधे ने हाथी के पेट को छुआ और उसने कहा कि हाथी तो दीवाल की तरह होता है। तीसरें अंधे ने हाथी के कान को छुआ और उसने आकर सुचना दी की हाथी तो कपड़े की तरह से होते है। अन्त चौथे अंधे ने आकर बताया की हाथी तो रस्सी की तरह होता है क्योंकि उसने ने हाथी के पुंछ को छुआ और कहा की हाथी तो रस्सी की तरह होती है, और वह आपस में सारें बहस करने लगे। क्योंकि सबने हाथी को अलग-अलग बताया जो एक दूसरें से मेल नहीं हो रहा था। उन सबने उस हाथी को छु कर देखा और सब एक दूसरें को बताने लगे कि हाथी कैसा होता है? जिसने पुछ को पकड़ा वह समझ गया कि हाथी तो रस्सी कि तरह होता है, और जिसने हाथी कि पैर को छुआ उसने कहा कि हाथी खम्भे कि तरह होता है अन्त में महात्मा बुद्ध ने कहा कि प्रत्येक अंधे ने हाथी को छुआ और सबने हाथी कि व्याख्या कि या उसके बारें में बताया इसमें सही कौन रहा है? इसका मतलब है। सारे धर्म और उसके सारे अंध श्रद्धालु उसी प्रकार से है, और उनका परमात्मा या धर्म के विषय में उसी प्रकार से जानते समझते जिस प्रकार से अंधो ने हाथी को समझा है। जिसके पास आंखें है वह किसी से नहीं पूछता है कि हाथी रूपी धर्म या परमात्मा क्या और कैसा है?
   मैं जीवन को बिना किसी तैयारी के ही जीता हूं जैसा हमको यह जीवन मिला है, उसको उसकी परीपूर्णता में पूरा स्वीकारता हूं इसके बारें में मैं पहले से कुछ भी तैयारी नहीं करता हूं क्योंकि मैं यह जानता हूं कि यह जीवन परमात्मा का एक अद्वितीय उपहार है। मैं आने वाले कल को बिल्कुल कल के लिए खुला रखता हूं उसके लिए मेंरे पास कोई योजना या पहले से कुछ भी तय नहीं करता हूं। अगर मुझे लगता है कुछ बोलना चाहिए तो ही मैं कुछ बोलता हूं अगर नहीं लगता है कि मुझे बोलने की कोई खास जरुरी नहीं तो मैं मौन ही रहता हूं। इसके सिवाय कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता है मैं वहीं करता हूं जो मुझसे मेंरा अस्तित्व कराता है। मैं स्वयं से कभी यह प्रश्न नहीं पूछता हूं ऐसा क्यों है? क्योंकि इस क्यों कोई उत्तर ही नहीं है। यह सहज है, बहता हूं जिस प्रकार से नदी, समन्दर और बादलों पर सवार हवा बह रही है। सारे उत्तर स्वयं के बनाये गए है और सब स्वयं को झुठा, असत्य, पाखण्डी बनाने के लिए और स्वयं की तृप्ति के लिए हैं। उसमें जीवन का सार्थक सत्य और उसकी वास्तवीकता नहीं है। सत्य कहा नहीं जा सकता, सत्य बहुत विशाल, विस्तृत व्यापक व्योंम, अज्ञेय अन्तरीक्ष की तरह है उसको जितना जान लों वह कम ही है। जिसका कोई अन्त नहीं है वह अनन्त है। जिसके लिए ही नेति-नेति अनन्त वेदानन्त कहा गया है अर्थात जहां वेदों का अन्त होता है वहां से वह प्रारम्भ होता है और सारे शब्द चम्मच की तरह है जिससे हम सब समन्दर को खाली करने के लिए भागीरथी प्रयास करते है। यह कभी भी आज तक संभव नहीं हुआ है नाहीं आगे ही होगा, शब्द मात्र विशाल परम ज्ञान सत्य की कुछ हल्की सी झलक से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस प्रकार झील के शान्त पानी में अपना चेहरा देखते है या कांच में अपनी तस्बीर देखते। उसी प्रकार से मुर्दे शब्दों में सत्य की झलक होती है। शब्द का अर्थ यह है सत्य के सन्दर्रभ में नहीं से अच्छा कुछ है शब्द तो है। इसलिए मैं नदी की धारा के साथ बहता हूं बिना किसी प्रश्न के कि कहां जा रहा हूं क्योंकि नदी स्वयं कि लहरों से कभी नहीं पूछती है कि तुम कहां जा रहे हो? क्योंकि नदी के लिए यह प्रश्न ही ब्यर्थ है। मेंरा प्रयास है केवल चलते रहो यह चलना ही जीवन है जो अज्ञेय है जिसे वेद यज्ञामहे कहते है। यह जीवन यज्ञ की तरह से है जो परमात्मा का दिया मानव को दिव्य आशिर्वाद उसके कल्याण के लिए है। लेकिन जब हमारी इच्छा अवरोध रुकावट बन कर खड़ी हो जाती है, तो उसमें जीवन नहीं बचता है। जीवन स्वयं में परीपूर्ण है उसका कोई लक्ष्य नहीं है और उसे बखुबी ज्ञान है कि उसे कहां जाना है उसकी मंजील क्या है? दुःख उधार है और परमआनन्द परमात्मा स्वयं का आन्तरीक जीवन का स्वभाव है।
   एक बार एक जाबाज नाविक समन्दर में यात्रा कि अचानक समन्दर में बहुत ही भयानक और दिल दहला देने वाली खतरनाक तुफान आगया जिसमें वह नाविक बुरी तरह से फंस गया। नाव में समन्दर की लहरें जोर दार थपेड़े मारने लगी जो 15 से 20 फुट तक उंची थी जिसमें नाविक को बचने की कोई उम्मीद नहीं था। नाव के टुकड़े-टुकड़े होकर धीरे-धीरे समन्दर में समाने लगी और वह नाविक बेहोंस हो गया। जब उसकी आंख खुली तो वह ऐसे द्विप के किनारें पड़ा था। जहां पर वह बिल्कुल अकेला और केवल उसका परमात्मा था। उसने परमात्मा को याद किया और अपने जीवन को बचाने के लिए उस बिरान द्विप पर भटकने लगा कुछ दीनों में उसने स्वयं को वहां पर किसी तरह से व्यवस्थित कर लिया और अपने लिए सुखी लकड़ी तथा घास फुंस से एक झोपड़ी रहने के लिए बना लिया वहां पर अपने जीवन को बिताने लगा। एक दिन वह रोज कि तरह जब अपने भोजन की तलास कर के वापिस आया तो क्या देखता है कि उसकी झपड़ी में आग लग गई है और वह बुरी तरह से आग के लपटों में आ चुकी है, उसको बचाने से पहले उसका बसा बशाया घर उस एकान्त द्विप पर आग में भस्म हो गया। उसने परमात्मा से कहा तूने सब जान कर ऐसा क्यों किया? जब वह सो कर उठा तो सबसे पहले उसने देखा कि एक जहाज उस द्विप की तरफ ही चला आ रहा है उस जहाज की आवाज दूर से ही उसके कानों में आ रही थी। जब वह आ गए तो उसने उस जहाज के कप्तान से पहला प्रश्न किया की तुम सब को यह कैसे ज्ञात हुआ की मैं यहां पर फंसा हुआ हूं? जहाज के कप्तान ने कहा की हमें तुम्हारें धुए का सिग्नल दिखाई दिया जिससे हम सब समझ गए कि वहां द्विप पर जरूर कोई फंस गया है जो हम सब की मद्त चाहता है। फिर उस नावीक ने कहा की परमात्मा का कार्य रहस्यात्मक है वह सब जानता है, और उसे सब ज्ञात है की हमें किस बस्तु की आवश्यक्ता है वह जानता है और उसको किसी ना किसी तरह से हमारें पास अवश्य ही भेजता या उपलब्ध कराता है। वह हम सब में हर पल सांशे ले रहा है वह हम सब को एक पल के लिए भी स्वयं से कभी दूर नहीं करता है, हम सब ही अल्प बुद्धि है जो उसे समझने में पूर्णतः असमर्थ है। जैसा की वेद स्वयं कहता है की वह तो हिरर्णयगर्भः है हम सब के हृदय के गर्भ में सदा से हर पल निवास कर रहा है। वह अपनी शरीर से भी करीब है।
   अब हम इस मंत्र में धीरे-धीरे उतरते हैं इसमें काफी सुक्ष्म और गुढ़ अर्थ छुपा है। जैसा कि महामृत्युञ्जय मंत्र में कहा जा रहा है कि ओ3म् यह परमात्मा का मुख्य नाम है। जैसा की महर्षि दयानन्द जी कहते है। जो अ, उ, म, तीन अक्षर हैं, ये मिलकर एक समुदाय बनाते है इस परमेंश्वर के बहुत नाम है, जैसा की अकार से वीराट, अग्नी और विश्वादि, उकार से हिरण्यर्गभ, वायु और तैजसादि, मकार से ईश्वर, आदित्य और प्रज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक हैं। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया गया है। प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेंश्वर के ही है।
   जैसा की स्वयं महर्षि दयानन्द कह रहे है जो संस्कृत और वेदों के  प्रकाण्ड विद्वान है विश्व में अपना एक नम्बर का अस्थान रखते है। वह कह रहें है की वेदादि जो सम्पूर्ण विश्व का सबसे प्राचिन ग्रन्थ है वह ब्रह्म लिपी में हैं जिनमें ना कुछ जोड़ा जा सकता ना ही कुछ घटाया ही जा सकता है। वेद अपने आप में अद्वतिय और अपने को अदृश्य में व्यक्त करते है उनकी जड़े अदृश्य हैं मैं जो कह रहा हूं उनका सत्यशास्त्रों में व्याख्यान किया गया है। अकार, उकार और मकार यह परमात्मा के विषेश गुण और स्वभाव की चर्चा करते है बतलाते है ब्याख्या या परीभाषा करते हैं अकार का सिधा सा अर्थ है आकार देने वाला, उकार का मतलब है, उपकार दूसरों का कल्यान करने वाला, मकार का मतलब है सबका कल्यान करने वाला, सबका सही सत्य न्याय करने वाला या दण्ड देने वाला मारने वाला और यही मुख्यतः तीन सत्तायें है जिसे त्रैतवाद कहते है, ईश्वर, जीव, प्रकृत यही मूल तीन तत्व है। जिसे वैज्ञानिक इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्युट्रान कहते है और इसको ही पौराणीक काल में ब्रह्मा विष्णु, महेश कहते है और इसको ही जब दर्शनों को लिखा गया तो वैषेशीक दर्शन कार कणाद सत्, रज, तम कह रहे है और इन्हीं तीन विषय को ध्यान में रख कर वेदों को परमात्मा द्वारा रचा गया वह मानव तन की सहायता से तैयार किया गया है परमात्मा मानव शरीर में प्रकट हुआ। वेद जिसे त्रयी विद्या के नाम से जानते है, अर्थात ज्ञान, कर्म, उपासना, ज्ञान का मतलब सिर्फ जानकारी से नहीं है जैसा की इन्फारमेंसन नालेज है। आज इसकी बहुत मांग हैं और इसी को ज्ञान समझा जा रहा है। जबकी ज्ञान का मतलब सत्य और स्वयं को उपलब्ध करने में जो सहायक हो वही ज्ञान है। जैसा की कहा गया है सा या विद्याविमुक्तय, विद्या या ज्ञान वह है जो आत्मा को शरीर से मुक्त करती है। आज के समय में जिसे ज्ञान समझा जा रहा है वह मुक्त नहीं करता है वह तो स्वयं को बन्धन में डालने वाला हैं। यदि ज्ञान मुक्त करने वाला होता तो आज संसार में दुःखी मानव को तलासना मुस्किल ही नहीं असंभव होता, लेकिन आज हम सब इसका बिल्कुल ही उल्टा या विपरीत देखते है। सारा संसार ही यहां दुःख में डुबा है और संसार भयंकर एक से बढ़ कर एक खतरनाक जानवरों से भरा पड़ा है जो श्रेष्ठ मनुष्यों को ऐसे तड़पा-तड़पा कर मारती है जिससे उनकी रुह भी कांप जाती है। जिसस, सरमद, मन्सुर, सुकरात, बन्दाबैरागी, ओशो, दयानन्द ऐसे सैकड़ों है जिनकी आज इस भुमंडल पर सांशे घुट रही है यह ग्रह एक भयानक और विक्षीप्त ग्रह पागलों की बस्ती बन कर रह गया हैं किस पल यह सारे पागल मिल कर एक साथ आत्महत्या कर लें यह कौन जानता है क्योंकि सारी तैयारी हर तरफ से सामुहीक आत्मघात के लिए ही हो रहा है। आज जिसको हम सब ज्ञान समझते है उसे न्याय दर्शनकार ऋषि गौतम वात, जल्प, वितण्डा कह रहे हैं। सच्चा ज्ञान तो वह है जो हम सब में समाया है वैदिक संस्कृत या दुनीया के किसी भी संस्कृत में नहीं है और जो ऋषियों महर्षियों के द्वारा कहा गया है। वेद, उपनिषद् और सम्पूर्ण विश्व के दर्शन वह सभी सत्य की परछायीं से अधीक नहीं है। जैसा की स्वयं महर्षि दयानन्द कहते है की मैं ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक सभी ऋषियों को मानता हूं और उनका अनुमोदन करता हूं उन्हीं का अनुसरण करता हूं जो सुत्र के रूप में है और उनके सारे ज्ञान का निचोंड़ आन्तरीक यात्रा का बिधान है। मृत्यु में प्रवेश करके उसके पार जाने का विज्ञान है। आज की पिढ़ी को उसको समझना ऐसा है जैसे दातों से लोहे के चना चबाना पड़े, और यह कार्य तो कोई दयानन्द या उनके जैसा कोई बिरला ही समझ सकता है जिसने स्वयं के जीवन में मृत्यु को स्वीकृती दे दिया है या उसको सहर्ष स्वीकार कर लिया है। सारा ज्ञान मरने की कला के अलावा और कुछ नहीं है। आज इस पृथ्वी पर मरना कौन चाहता है? और जो मरने के लिए तैयार है वही सच्चा ज्ञानी है जो हर पल मर रहा है जिसका ना आने वाला कल है ना ही जो कल चला गया है वही उसका है। जो आज और अभी में जीते है और यह देख रहा है हर पल कि उसके शरीर की मृत्यु हो रही है वह हर पल घट रही है ऐसे मानव जो सदियों और युगों में हुआ करते हैं आज भी संभव है जब उसको समझने का पुरषार्थ किया जाए। जैसा की दर्शन कार कपील मुनी कहते हैं केवल और केवल एक मार्ग है तीनों प्रकार के भौतिक, दैविक, और आध्यात्मिक दुःखों से छुटने का है वह मार्ग पुरषार्थ हैं। पुरषार्थ का मतलब है अपनी आंखों को खोलना स्वयं को उपलब्ध करना इसके सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
   एक कहानी मुझे याद आती है एक बार एक बृद्ध आदमी था उसकी उम्र करीब 70 साल की थी उसके चार लड़के उसकी पत्नी उसकी चार बहुयें भी थी उनका एक बच्चा भी था कुल मिला कर उसके परीवार में उसको छोड़ कर 20 व्यक्ति थे जो उसकी बहुत अच्छी प्रकार से उसकी सेवा करते थे, वह बहुत प्रसन्न और आनन्द पूर्वक अपना जीवन बीता रहा था सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था की अचानक उसकी आंखों में किसी कारण बस कोई रोग हो गया जिससे उसकी आंखें खराब हो गई, और वह पूरी तरह से अंधा हो गया। उसको चाहने वाले उसके बहुत मित्र शुभ चिन्तक लोग थे। उन्होंने उससे कहा की तुम अपनी आंखों को ठीक करा लों नहीं तो तुमको बहुत कठीनाईयों का सामना करना पड़ सकता है लेकिन उस बृद्ध ने बार-बार यही कहा की क्या आवश्यक्ता है। अब मेंरी आंखों को ठीक कराने का मतलब होगा व्यर्थ में पैसा को खर्च करना। मेंरा परीवार बहुत अच्छे लोगों से भरा है जो मेरी कितनी अच्छी तरह से देख-भाल और ध्यान रखते है। मेंरे परीवार में कुल बीस आंखें हैं मेंरी पत्नी चार बेटे चार बहुयें और उनका एक बहुत सुन्दर बच्चा भी है, उनकी आंखों से ही मेंरा सारा कार्य चल रहा है। लोगों ने उस बृद्ध को बहुत समझाने का प्रयास किया। लेकिन मोह और ममता के कारण उसकी बुद्धि  भ्रस्ट हो चुकी थी। उस बृद्ध ने अपनी जीद के कारण अपनी आंखों को ठीक नहीं कराया, बाद में लोगों ने उसको समझाना समाप्त कर दिया। कुछ समय तक सब कुछ अच्छी तरह से चल रहा था क्योंकि वह एक पूराना बहुत बड़ा व्यापारी था। उसके नाम उसके पास काफी धन था। जिसके कारण सारे परीवार वाले उसका जरुरत से कहीं ज्यादा ही ध्यान रखते थे, उसको अपनी आंखों की कोई जरुरत ही महसुश नहीं होती थी। सब कुछ ठीक चल रहा था की अचानक उसके मकान में एक रात्री के मध्य में भयंकर आग लग गई और उसमें जितने लोग थे वह सब किसी तरह से उस जलते हुए मकान स्वयं को निकालने में सफल हो गए, अब आग बहुत भड़क चुकी थी जब सभी मकान से बाहर निकल चुके, तब उनमें से किसी को याद आया की वह बृद्ध आदमी तो अन्दर जलते हुए मकान में ही रह गया है। लेकिन अब क्या हो सकता था क्योंकि अब उस मकान के अन्दर जाने का मतलब था स्वयं को मृत्यु के मुख में झोंकना और इसके लिए कोई भी तैयार नहीं था। वह बृद्ध आदमी जिन्दा ही जल रहा था और तड़प-तड़प कर चिल्ला रहा था मुझे बचाओ लेकिन वहां उसकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था। तब उसको अपने पूराने मित्रों और शुभ चिन्तकों की बात याद आई की मैंने बहुत बड़ी गल्ती कर दी जो अपनी आंखों को ठीक करावाया जिसके कारण ही आज मुझे जिन्दा आग में जलना पड़ रहा है। लेकिन अब क्या हो सकता था दरवाजे तो बहुत थे लेकिन वह बार-बार दीवाल से ही टकराता रहा, तब तक जब तक उसकी मृत्यु या प्राण पखेंरू नहीं उड़ गए। क्योंकि जिससे दरवाजा दिखता है वह ज्ञान इन्द्रि आंख तो उसके पास थी ही नहीं। एक बाहरी आंख है और एक आन्तरीक आंखें होती हैं। जिसको प्रज्ञा चछु कहते हैं उसकी तो दोनों आंखें नष्ट हो चुकी थी जिसके करण वह अकाल मृत्यु को उपलब्ध हुआ। ऐसा ही हम सब के साथ भी हो रहा है हम सब भी दूसरों की आंखों से चलना चाहते हैं। यहां तो आग हम सब के अन्दर लगी है और इसका इलाज बाहरी गुरुओं और ज्ञानीयों से पूछ रहें हैं। जिसका ही परीणाम जीवन में अशान्ती और बितृष्णा, अतृपत्ति है से ज्यादा कुछ नहीं हैं। जब की सब का गुरु तो हम सब के अन्दर बैठा है जैसा की योग दर्शन कार पतञ्जली कहते है। स पूर्वेषाम अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।। मुसिबत में अपनी ही आंखें ही काम करती हैं दूसरों के पास कितना ही ज्ञान क्यों ना हो वह अपने काम कभी नहीं आता है। अपना काम तो अपने ही ज्ञान से चलता है और अपनी आंखें ही काम आती हैं उसी आंख को खोलने के लिए ही सांख्य दर्शन कार कपील कह रहें है। यह तो ज्ञान हो गया। दूसरा कर्म है जब किसी वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान होगा तो उसके अनुरूप कर्म करने से उसका परिणाम आना निश्चित है विज्ञान का जो सुत्र है वही सिस्टम या व्यवस्था यहां पर ऋषियों महर्षियों द्वार लागु की जा रही है। ऋषि आज के वैज्ञानिकों से बहुत श्रेष्ठ उत्कृष्ठ हैं। क्योंकि वह सिर्फ भौतिक ज्ञान नहीं देते है यद्यपि वह तीन प्रकार के ज्ञान की बातें करते हैं जिसको जानकर मानव चेतना मन, शरीर और हजारों जन्म के संग्रहीत किए गये अज्ञान कुसंसकार से मुक्त होकर परमानन्द मोक्ष परमात्मा में स्वयं को बीलिन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। सिर्फ समय के साथ नये-नये शब्द को जन्म दिया गया है। ऋषि का मतलब होता है ऋ से ऋत बनता है जिसका अर्थ शास्वत है स का अर्थ है वह अर्थात ऋषि वह है जो शास्वता चैतन्यता में स्वयं को स्थिर कर चुका है ऋषि वै मंत्र द्रष्टाः। ऋषि वह है जो मंत्र अर्थात जो मन का द्रष्टा मन का साक्षात्कार करने वाला मन का स्वामी है। वह मूल तत्त्व आज भी उसी प्रकार से है जिस प्रकार से तब थे जब वेदों को लिखा गया था। वास्तवीक मूल तत्त्व तो वही हैं। वह आज भी निश्चल उसी प्रकार से है। अब इस मंत्र को समझते हैं। त्र्यम्बकं का अर्थ है जो मुख्य तीन प्रकार के तत्त्व वह आपस में मिल कर (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) जो यज्ञामहे, यज्ञ का कार्य कर रहें उसी के कारण इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सृजन और प्रलय हो रहा है यह सब उन्हीं के द्वारा हो रहा है। हर पल यह सब सम्पूर्ण जीव, जन्तु, प्राणी के कल्यान के लिए अभी भी हो रहा है, और जीवन रूपी यज्ञ उन्हीं के द्वारा हो रहा है। वह जीवन रूपी आनन्द को बरषाने वाले हैं जिनके होने से ही यह जीवन रूपी पुष्प सुगन्धित हो रहा है या सुगन्ध आ रही है। वह सब यज्ञ के कारण ही हो रहा है यज्ञ एक बहुत ही बिस्तृत अर्थ और रहस्यपूर्ण शब्द है। इस यज्ञ को थोड़ा सा समझते है जैसा की ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा जा रहा है कि "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म" अर्थात यज्ञ मानव और इस समस्त ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ट कर्म है। यज्ञ की महीमा प्रस्तुत करते हुए ऋगवेद '1,16,4,35, में यजुर्वेद '26.62' अर्थवेद '9.104' "अयं यज्ञो भुवनस्य नाभी" अर्थात यज्ञ सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की नाभी केन्द्र है। शब्दों के साथ यज्ञ समग्र संसार और समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का आधार माना गया है। छान्दोग्योपनिषद् "4,6,2" और ब्राह्मणग्रन्थों में "यज्ञो वै सः पूरुषो वै यज्ञः" 'शतपथ ब्राह्मण 1,3,2,1' शब्दों से इस सृष्टि के रचैयता ब्रह्म को यज्ञ अभिहीत किया गया।



गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

the fragrance of mysterious edification


I am not the mind, intellect, thought, or opinion of yourself;
Not investigation, not tasting, and not smelling, not considering;
I am not the fundamentals–the atmosphere, earth, conflagration, air:
I am the form of mindful ecstasy: I am the strength of mind!
I am neither Prana, nor the five of the essence airs;
Nor the seven apparatus of the unpleasant body;
Nor the subtle bodies; nor organs of action:
I am the form of Conscious Bliss: I am Spirit!
I have no repugnance, clinging, revenues, a figment of the imagination;
No jealousy or self-importance, and no responsibility or principle;
I have no aspiration, and I have no self-determination:
I am the form of Conscious harmony: I am Spirit!
I have no advantage or transgression, nor gratification or tenderness;
No mantra, pilgrimage, Veda or surrender;
Not enjoying, pleasurable, or enjoyer;
I am the outward appearance of Conscious Bliss: I am Spirit!
I have no bereavement or trepidation, no dissimilarity of background;
Neither member of the clergy, nor mother, nor do I have confinement;
No friend or family member, spiritual leader or supporter:
I am the form of Conscious Bliss: I am Spirit!
I am devoid of attributes; I am without outward appearance;
I am omnipresent, I am all-pervading;
By senses safe and sound, neither without charge, nor predictable:
I am the form of Conscious Bliss: I am Spirit!
    I decided to write this book did it first the question will arise in the minds of you all. I'm pretty much the people but not as much as I know he himself is unique. I took him to publisher to print the book and he refused to publish when I took a second loop of the publisher and told that if he said something to her you want to say come take a page write. I thought of quite a few pages just how such a large book to write this book than I have not written it yet why I wrote let the foreword and the Prolegomenon I started writing this book.
  This is the mystery about the fragrance of mysterious edification that is come the man who is unknown at this time that is the foundation of rich culture and civilization of east and spread entire world the base is Vedas written by Vedic sage many-many years ago I have chosen some sweet fragrance that is compendious abstract about it not complete but this is the nectar of spirituality. 
   I will not give you this is new knowledge of spirituality but attempt to explain what are real and rare things in the ancient spiritual treasure of the eastern world in this book the answer I can give in a few words. And the word of divine truth in the book today and has been known that the secret to its flavor or fragrance only. As this book is to be expressed as the main name. Knowledge today that have been deemed to be by science and spirituality nonrepresentational it is the smell of his words in the swing of things by me I have been through this book. And their stories which are attractive much also I have used the human spirit to achieve ecstasies, which are the means by using them in your life to own life perfectly perfect. By which the human soul has the sensation of bliss. As his fragrance fills up in this book I have been a great effort. Because the only way today has been reported that human cognition and self-knowledge of the completely enlighten which he is also helpful to know them. All in the life of a human problem and the difficulty is all only a response that is the transformation of consciousness to super consciousness how practical are available using her entire life to achieve her ultimate goal in life which is the purpose of this book. And this is nothing new that even the very old then come when he appears in front of you if you give it refused to recognize that even if your internal existence. And that who talked about the existence in this world no any only acknowledge that person like that Jesus and many more men is available in this world Socrates’ or Mansur. After bereavement every one veneration that individual and to distribute? This person name lot of hypocrisy, unawareness makes every man and women with personality like disaster and destroys everything that is original. This type of ignorance and hypocritical man gives the name that things this is the religious conviction but they only make an effort to destroy original religion. Original religion is know them self by meditation practice without it no other way. I do not say that I completely know about the religion because I don’t know how many religions exist on the earth mad? By hypocritical man. Who is? Know what is original religion and spirituality that an internal process of our existence and that is beyond mind, life and death original spirituality and religion is the door of nectar. My knowledge is only the relation of myself? Existence experience and who is? Know that type of understanding that is my best friends and my continuation family member and here? I say about that. I should want to say this book that you knowing about you or understanding self with thought or any type of religion scripture most important that is very big incorrect because word is? Unfinished which type a word explain inscrutability by word of philosophy that method is completely beginning the way of wrong destination.
    Man is the emperor of universal world and which type man all over again supervision the body of universe in this book’s key and very expensive prescription also in this book. If you use properly in for every day of your life subsequently you achieved the higher destination of your life. I want to invent the way which any one inter on to death that is beyond our mind and senses and transformed death to life of nectar by meditation. I want to develop methods that which anyone stands on his foundation of the existence of the universal soul that are in the body of man. I want to join man’s consciousness to universal super consciousness that is already one but among the God and man most difficult things are man’s mind egos that come to pass lot of problems for man if man use methods of meditation then change everything in his life. Man is not known? About God but God is living the heart of man if man is visited in his internal world then he achieves them. Man is emperor and the empire every prosperous property of God but he does not therefor? He lives on this earth like an animal that live without knowledge of his existence so he suffers a lot of difficulty and painful life.
    That is the way which we are free from this dangerous disaster that is the knowledge of enternal existence by continue practice of meditation.
    Hanuman had forgotten the way his supremacy when they were reminded that they have knowledge of their strengths was the same way the human sense of yourself and his existence is not it time - time needed to be reminded that the undertaking now I have also just been. Hanuman was like when the knowledge of his power by crossing the ocean beyond reaches Lanka being the same way the man is his knowledge so he crossed the world external illusion takes to provide that freedom. For me that I have been absolutely necessary to human existence of which he himself has forgotten about it Let again reminded us of as the first great spiritual people have done. That's just the same way I wrote this beautiful book the way honey bee thousand flowers to make honey by sucking the juice the same way I spiritual master by so many constituent juice like the nectar of flower nectar showers New presentation with their few drops of time I have required to keep in mind that if the fruit juice be saved. The message to the existence require let you thirsty for the way the canals rivers by removing the water of the rivers are dry field reach without water to the desert and barren farm goods were to be green once again enveloped in it And they are desert, barren land of diamonds, pearls, gold seem to be generated the same way that the human heart even if it is a stream of nectar which way that there are ways to use it all their done to get pleasure from life to the ultimate wish of my heart desires that are available . I want to tell humans the animals are not human on the ground saunter like monkey came from the work force even though humans are a very immense the whole universe is the only human power to the people not it wonderful to use invisible wings If the human right to utilize the wings is to be on familiar terms with if it can make the world a God who is not increasingly possible for a monkey. Humans are a magnificent and exceptional treasure is the treasure so much to him extraordinarily to a great extent as the body of her body and human consciousness is not so much as distance traveled in the middle of the ground and sky present. Human about the self and my personal treasure it the way animals are not people, and in their natural habitat animal life, only food, sleep, sex, the passes are in the same way a human would, but with about the matchless treasures inside when he can not immediately know that it takes to compose obtainable so that not to tell her a wonderful nor can judge against him to like him as a nectar receives the ultimate gratification and self- look at the top of the mountain and all that it appears that others be in this world in such darkness valleys where ever light is not the same viewpoint.
      surrounded by the inner darkness and unawareness of humans for centuries that the science exists to find solutions by using the human person it has made itself much more counterfeit and the fake wear from top to bottom decorated the way a donkey lion If he gets the lion not to be dressed in fur that keeps the donkey are the same if only he had put up the lion's cover and he himself is not because people are approximating ass ass by nature so faithfully the same way today's generation are.He knows not his accurate temperament which is described by him, as he is only being made slave of the Shukrat asks if you want to formulate heroes out of the hero inside yourself Do not do something the same way, but science like the lion's ass was wearing cloths Let science and that the work is done in ages because of the great scientist Einstein said that without the spirit of science like the way the man without eyes and not including the science of spirituality such as a man without legs. Science has blinded the man she only just competent to see the outer surface of your body to science, the man turned away too much of yourself and be exceptionally in the neighborhood of death, life is not really a life mystrious while the life of inscrutability spirit of the attendance occurs when the human full space in it is clear that the man inside today are fully loaded as a philosopher once been one of Japan's spiritual master Munan Munan said so before you which are burdened inside me then I missed it in you that is the real Zen meditation is to enter into you or him try to explain it.
   This book is for them to understand that it they are written keeping in mind the subject of this book are beyond the human mind to focus on him and hit him for life. Not to hurt anyone's mind that would hurt someone if it means that he himself is not the public, though he considers himself the only body which are beyond the body to give him a place in life that are convinced that this book is worthy of understanding.